Friday, May 9, 2008

एक बिहारी , सौ बिमारी

आज ऑफिस से घर जाते हुए, रविन्द्र सदन मेट्रो स्टेशन पर खड़ा आने वाली मेट्रो की प्रतीक्षा कर ही रहा था की, मेरे दाहिने कंधे पर किसी हाथ रखने का आभास हुआ। पलट कर देखा तो अपनी वोही चिर-परिचित मुस्कान लिए शुक्ला जी खड़े थे। यूं तो शुक्ला जी हमारे बचपन के सहपाठी भी रह चुके हैं , लेकिन उनके सादा जीवन - उच्चा विचार के प्रसंशक हम प्रारंभ से ही हैं। हमारे जैसे बिहारी छात्र जो कलकत्ता आते ही अपने आप को महानगरी चादर से लपेट लिया, राधेमोहन शुक्ला जी सदैव इस बनावटी दुनिया से परे रहे। कॉलेज मे सभी छात्र लेक्चर समाप्त होते ही बावर्ची वाली सफ़ेद वर्दी उतार कर अत्याधुनिक पोशाक मे लैस हो जिन्हें वो लो - राइज़ जींस ओर बैगी टी- शर्ट कहते थे, अपनी -अपनी प्रेमिका अथवा महिला मित्रों के साथ कैफे - काफी - डे या माक्दोनाल्ड्स के वातानूकुलित कक्ष का आनंद लेते, लेकिन इन सबसे अलग हमारे शुक्ला जी अपनी वही सादी कमीज़ , फुल पैंट ओर हवाई चप्पल पहने चाचा के ढाबे पर चाय के चुस्कियों मे मग्न दिखते। यदा - कदा मैं भी सिगरेट के कश लेता हुआ उनके साथ सम्मिलित हो जाया करता था और फ़िर हम दोनों बिहारी लिट्टी - चोखे को अंतराष्ट्रीय ख्याति दिलाने के प्रयास मे लग जाते। कहने का तात्पर्य ये की हम दोनों की अच्छी पटती थी।

हमें ज्ञात था की शुक्ला जी यहीं कलकत्ते के एक पांच सितारा होटल " द पार्क " मे तंदूर शेफ के पद पर कार्य करते हैं, किंतु आज अचानक इस तरह नहीं मुलाक़ात से अनायास ही ब्यातीत किए हुए दिन हुए इस तरह आखों के आगे से ऐसे गुजरने लगे जैसे पावर - पॉइंट का स्लाइड शो हो रहा हो। घर जाने का उद्देश्य त्याग कर मैं उनके साथ मेट्रो स्टेशन से बाहर आ गया , ओर फ़िर हमारे सम्मिलित कदम पास ही स्थित हल्दिराम्स रेस्तरां के तरफ़ बढ़ गए। बात - चित के क्रम मे मैंने उनसे पूछा -- " आज रसोई मे दिन कैसी रही ?" पता चला की आज उनका साप्ताहिक छुट्टी का दिन था तो वो घर पर ही थे लेकिन अगले महीने गाँव जाने की टिकट कराने रविन्द्र सदन आए हुए थे। मैंने फ़िर पूछा -- तो टिकट हो ही गई गई होगी " लेकिन इसका उत्तर मिला "नहीं " साथ ही उनके चेहरे पर एक निराशा का भाव भी दिखा । अगर एक बावर्ची के शब्दों मे कहा जाए त ये मुफ्त मे दिखाई देने वाले भाव ऐसे ही थे जैसे बिरयानी के साथ रायेता मुफ्त आता है। कारण पूछा तो बोले की आरक्षण काऊंटर पर उनकी लड़ाई हो गई। ये सुनते ही मैं सोच मे पड़ गया की शुक्ला जी जैसा मनुष्य जो किसी भी विवाद से कोसों दूर रहता है , अचानक किसी झमेले मे कैसे उलझ गया । विस्तृत कहानी सुनी तो ज्ञात हुआ की बेचारे के साथ बड़ी विडंबना हो गई ।

आरक्षण के कतार मे खड़े शुक्ला जी पसीने से तर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे , तभी एक बंगालन माता जी ने उन्हें पीछे कतार मे खड़े होने को कहा क्योंकि वो वह पहले से कतार मैं खड़ी थी ओर किसी कार्यवश बाहर गई थी। पिछले पैंतालीस मिनट से खड़े शुक्ला जी ने जब यही तर्क देना चाहा तो माताजी के समर्थन मे २-३ बंगबंधू सम्मित्लित हो गए और अपनी एकजुट ध्वनि मे काँव - काँव करने लगे अब तो प्रश्न आत्म -सम्मान का बन आया था , शुक्ला जी भी अड़ गए। बस बोली की महाभारत प्रारंभ होने की देर थी की, हिन्दी ओर अंग्रेजी भाषाओं मे दिव्यास्त्र चलने लगे। और दूर खड़ी बंगालन माताजी महाभारत के पांचाली की भाँती सारे कर्म करा कर मानों इसी बात की प्रतीक्षा कर रहीं थी के कब शुक्ला जी जैसे दुस्शासन को उखाड़ फेका जाए और वो उनके स्थान पर खड़ी होकर अपनी टिकट बनवाए । लेकिन शुक्ला जी भी कच्चे खिलाडियों मे से नहीं थे, वो तो अभिमन्यु की भाँती चक्रव्यूह मे अकेला ही सब का सामना किए जा रहे थे। तभी एक कोने से आवाज़ आई.... " ऐइ ..... ई बिहारी शौब को कोलकाता से भागाओ ..... शाला शोब यहाँ आकर इधर का माहौल खौराब कोरता हाए...." और इस से भी बढ़ कर एक बात उन्हें सुनने को मिली -- " एक बिहारी , सौ बिमारी" कदाचित शुक्ला जी जैसे अभिमन्यु को परास्त करने का बस एक ही ब्रह्मास्त्र बंगबंधुओं के पास रह गया था... जिसका उन्होंने उपयोग कर लिया। वीरगति को प्राप्त शुक्ला जी भी अपने भाषा मे उन बंग्बंधुओं को भला-बुरा बोलते हुए बिना टिकट बनाये ही लौट गए।

उनके साथ घटी इस घटना से मैं काफ़ी क्षुब्ध हो गया । पहले तो उन्हें इन सब तरह की विवादों मे न पड़ने की मंत्रणा दी फ़िर वापिस जाकर टिकट बना लेने की सलाह, अन्यथा आज का यह साप्ताहिक अवकाश यूंही व्यर्थ चला जाता। काफ़ी समझाने के बाद वो दुबारा वहाँ मेरे साथ जाने को सहमत हुए।

उनके साथ सिधियाँ चढ़ता हुआ मैं आरक्षण हॉल तक पहुँचा। स्वयं को पांडव समझने वाले बंगबंधु तो द्रौपदी के साथ कूच कर गए थे, किंतु उनके सेना के कुछ वीर अभी भी वहाँ मौजूद थे। कत्तार लगी हुई थी। मैंने शुक्ला जी को सबसे आगे की पंक्ति मे खड़ा हो जाने को कहा ओर ये भी समझा दिया की अब उन्हें वोही तर्क देने हैं जो बंगबंधु पहले युद्ध मे दे रहे थे। बस क्या... अब हमारा अभिमन्यु पुनः जीवित हो चुका था ओर इस बारउन्हें बासुदेव कृष्ण का भी समर्थन प्राप्त था।

किंतु ये वाम पंथी विरोध अपनी परकाष्ट्था पे था । उनमे से एक बंगबंधू जो उम्र से थोड़े परिपक्वा ओर स्वभाव से थोड़े सज्जन जान पड़ रहे थे , शुक्ला जी के तरफ़ आरूढ़ होकर बोले -- " दादा तोमार ऐ काज त भालो नी ... तुमि आबार बिहारी मतों कोथाबोल छो। ( यानी, भाई साहब आप फ़िर से बिहारी की तरह बातें कर रहे हैं , ये बात अच्छी नहीं है। ) इतना सुनते मुझसे रहा नही गया ओरमैं उन सज्जन के समीप जाकर उनके मोटे काले चश्मे के फ्रेम मे होर्लिक्स के शीशे के तरह लगे लेंस से उनके आखों मे आँखे डालकर खड़ा हो गया ओर बड़े प्रेम से बोला -
तो बंगाली जैसी बातें कैसे करते हैं यह आप ही बतला दीजिये। क्योंकि थोडी देर पहले आप लोग जिसे एक बिहारी के निकृष्ट कार्य नहीं संज्ञा दे रहे थे, वो कार्य आप निज ही कर रहे हैं। कहानी वोही है, बस कहानी के पात्र बदल गए हैं । जिस तरह से आप भाद्रजन " बिहारी " शब्द को गाली के तरह उपयोग मे लाते हैं , वैसे ही बंग शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है ओर आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की शायद ऐसा कार्य धद्दल्ले से हो रहा है। हर एक आलसी ओर कामचोर इंसान को कदाचित इसी विशेषण से अलंकृत किया जाता है। कर्कट प्रवृति का दूसरा नाम बंग प्रवृति हैजो हमेशा एक दूसरे को नीचा दिखाने मे लगे रहते है , संभवतः यह भूल जाते हैं की दूसरों का अपमान करने से उनकी गरिमा कभी नहीं बढ़ सकती। अतः क्षेत्रीयता को गाली बना कर प्रयोग मे लाने से किसी को भी बचना चाहिए। अन्यथा एक दिन क्षेत्रीयता से प्रभावित वैमनस्यता उस ऊंचाई पर पहुच जायेगी , जहाँ हर मनुष्य अपने अस्तित्व को खो कर सिर्फ़ प्रांतीय बन कर रह जायेगा। समुदाय बिहारी हो या बंगाली, या मराठी, गुजराती कुछ भी हो , कभी बुरी नहीं होती बुरे आप और हम जैसे लोग होते हैं जो कभी इन सब चीजों से उठ कर उपर की नहीं सोचते, और इसका प्रत्यक्षा उदाहरण आपके सामने है। किसी को नीचा दिखा कर हम स्वयं को महान नहीं कर सकते, इसके लिए महान कार्य करने पड़ते हैं।

इस प्रशन का उत्तर किन्ही बंगबंधू के पास कदाचित नही था, और मेरी इस बात को इतने ध्यान से सुने जाने का कारण यह था की मैंने अपना उत्तर उन्हीं के भाषा मे दिया था, जिसके उपर मुझे कुछ लोगों नहीं सहमति भी मिलने लगी।

तिरछी नजर से से देखा तो शुक्ला जी अपना टिकट करा कोने मे खड़े हो कर, मेरे बातों को सुन रहे थे ... हमारी इस ज्ञानप्रद बातों से बंग्बंधुओं का ध्यान बाँट गया था ओर शुक्ला जी को टिकट कराने का पर्याप्त समय मिल गया। उनका कार्य सिद्ध हुआ ओर मुफ्त मे बंग बंधुओं का ज्ञानवर्धन भी। बाहर आकर पुनः सिगरेट के धुएं , चाय के चुस्कियों ओर ठहाकों के साथ हमने अपनी संध्या गुजारी, ओर फ़िर रबिन्द्र सदन मेट्रो स्टेशन से अपनी गाड़ी पकड़ कर गंतव्य की तरफ़ रवाना हो गए।

नोट : एक ज्वलंत मुद्दे पर यह व्यंग किसी भी क्षेत्रीय भावना से प्रेरित नहीं है, आपको यह कैसा लगा, इस पर टिपण्णी अवश्य दे।

2 comments:

Kundan Jha said...

Really Nice..
The same story is being repeated in every city outside Bihar.These crap non biharis are jsut jealous..nothing else..

Nandan Jha said...

धन्यवाद के के बाबु ....
ये एक तरह की विकृत मानसिकता है .... ओर ये लोग इस रोग से चिरकाल से ही पीड़ित hain..... अन्यथा ... , भाषा ओर क्षेत्रीयता कभी भी मानवता के मार्ग मे नही आनी चाहिए ...