Wednesday, May 21, 2008

आमिर, शाहरुख़ और आमिर का कुत्ता

लगान, रंग दे बसंती, और तत्कालीन तारे ज़मीन पर जैसे महान सफल चलचित्र के पृष्ठ नायक एवं निर्माता आमिर खान के एक गैर जिम्मेदार ब्लॉग पोस्ट ने संभवतः उनके गंभीर चरित्र के ऊपर एक प्रश्नचिंह लगा दिया है। प्रायोगिक तथा यथार्थवादी मुद्दों पर फ़िल्म बनने वाले ये नायक/निर्माता/ निर्देशक आमिर खान अवश्य ही किसी हीनभावना से ग्रसित हैं। उनके स्वयं के व्यक्तिगत जीवन मे उनके चरित्र की बात तो जग जाहिर है , जिसका जिक्र मैं यहाँ नहीं करना चाहता। किंतु अपने समकालिक एक अन्य महान नायक की तुलना अपने पालतू से करके निश्चय ही उन्होंने स्वयं को विवादों के कटहरे मे खड़ा कर लिया है।

मुद्दा ये नहीं है की उनके पालतू का नाम शाह रुख है या नहीं, बल्कि यह है की , जिस प्रतिस्पर्धा ओर द्वेष से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसी बात लिखी है वह अवांछनीय है। यदि दो मिनट के लिए मान भी लिया जाए की उनके पालतू का नाम शाह रुख है , तो भी एक जिम्मेदार आदमी को कदाचित यह बात सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए , ओर वो भी तब जब यह बात सीधा उनसे जुडा हुआ है जिन्हें वो अपना मित्र कहते हैं । उनके इस टिपण्णी से सामने वाले को कोई अन्तर नहीं परता । वैसे भी सदैव विवादों मे रहे आमिर की यह टिपण्णी एक ऐसे कलाकार के बारे मे जो जो कभी विवादों मे नहीं रहता हस्यास्प्रद है ।

वैसे मेरे भी पड़ोस मे एक सफाई कर्मचारी रहता है , जो हर रोज़ सड़क की गंदगी साफ करता है , उसका नाम आमिर खान है , यह बात मैं कह सकता हूँ क्योंकि मेरी ख्याति का स्तर उतना नहीं है जितना आमिर जी का है। ओर अगर कह भी दिया तो मैंने एक प्रायोगिक बात कही जो सम्भव है , एक सफाई कर्मचारी का नाम आमिर खान हो ही सकता है , किंतु उनकी बात तो हर तरह से अतार्किक है की उनके कुत्ते का नाम शाह रुख है। सचमुच कितनी घटिया मानसिकता पाल के रखते हैं आमिर जी आप । वैसे तो लोग अपने बच्चो का नाम विख्यात लोगों के नाम पर रखते हैं , लेकिन इन्होने तो पालतू कुत्ते का नामकरण करके एक नई प्रथा का शिलान्यास कर दिया है। आश्चर्य नहीं होगा अगर कल को मेरे मित्र के घर मे रहने वाली बिल्ली का नाम मेरा मित्र किरण ( आमिर की पत्नी) रख दे।

अब भले ही आमिर जी जनता ओर अपने खान भाई के सामने कितने भी क्षमा प्रार्थी हो जाएं, पर निश्चित रूप से इस आधारहीन बात से आमिर ने अपने कई प्रशंसकों को निराश किया है , ओर साथ साथ उनकी वास्तविकता भी सामने आ गई है।

referance :
http://aamirkhan.com/blog.htm

Wednesday, May 14, 2008

तेरा साया

जब भी तुमको सोचा, ख़ुद के करीब पाया।
जैसे मेरे साथ-साथ चलता हो तेरा साया।
दिल को दिया सकून , तेरे साए ने,
जब भी इसको तन्हाई ने सताया।

तेरे साए मे भरी है वो बातें,
कराती है ताज़ी हमारी जो यादें,
की हम मिले थे उस मुकां पे जहाँ,
आकर थम सी गई थी हमारी सांसें,

वो साँसे आज भी थमती हैं,
तेरे यादों मे आँखें आज भी नमतीं हैं,
तेरा साया देता है तब दिल को राहत,
राहत पाकर भी बेचैनी कहाँ कमती है,

इस बेचैन दिल को हमने जब समझाया,
पर समझाने पर हर बार यही पाया,
नहीं इस दिल को था उकसाया किसी ने,
कोई ओर नहीं था वो था तेरा साया।

Friday, May 9, 2008

एक बिहारी , सौ बिमारी

आज ऑफिस से घर जाते हुए, रविन्द्र सदन मेट्रो स्टेशन पर खड़ा आने वाली मेट्रो की प्रतीक्षा कर ही रहा था की, मेरे दाहिने कंधे पर किसी हाथ रखने का आभास हुआ। पलट कर देखा तो अपनी वोही चिर-परिचित मुस्कान लिए शुक्ला जी खड़े थे। यूं तो शुक्ला जी हमारे बचपन के सहपाठी भी रह चुके हैं , लेकिन उनके सादा जीवन - उच्चा विचार के प्रसंशक हम प्रारंभ से ही हैं। हमारे जैसे बिहारी छात्र जो कलकत्ता आते ही अपने आप को महानगरी चादर से लपेट लिया, राधेमोहन शुक्ला जी सदैव इस बनावटी दुनिया से परे रहे। कॉलेज मे सभी छात्र लेक्चर समाप्त होते ही बावर्ची वाली सफ़ेद वर्दी उतार कर अत्याधुनिक पोशाक मे लैस हो जिन्हें वो लो - राइज़ जींस ओर बैगी टी- शर्ट कहते थे, अपनी -अपनी प्रेमिका अथवा महिला मित्रों के साथ कैफे - काफी - डे या माक्दोनाल्ड्स के वातानूकुलित कक्ष का आनंद लेते, लेकिन इन सबसे अलग हमारे शुक्ला जी अपनी वही सादी कमीज़ , फुल पैंट ओर हवाई चप्पल पहने चाचा के ढाबे पर चाय के चुस्कियों मे मग्न दिखते। यदा - कदा मैं भी सिगरेट के कश लेता हुआ उनके साथ सम्मिलित हो जाया करता था और फ़िर हम दोनों बिहारी लिट्टी - चोखे को अंतराष्ट्रीय ख्याति दिलाने के प्रयास मे लग जाते। कहने का तात्पर्य ये की हम दोनों की अच्छी पटती थी।

हमें ज्ञात था की शुक्ला जी यहीं कलकत्ते के एक पांच सितारा होटल " द पार्क " मे तंदूर शेफ के पद पर कार्य करते हैं, किंतु आज अचानक इस तरह नहीं मुलाक़ात से अनायास ही ब्यातीत किए हुए दिन हुए इस तरह आखों के आगे से ऐसे गुजरने लगे जैसे पावर - पॉइंट का स्लाइड शो हो रहा हो। घर जाने का उद्देश्य त्याग कर मैं उनके साथ मेट्रो स्टेशन से बाहर आ गया , ओर फ़िर हमारे सम्मिलित कदम पास ही स्थित हल्दिराम्स रेस्तरां के तरफ़ बढ़ गए। बात - चित के क्रम मे मैंने उनसे पूछा -- " आज रसोई मे दिन कैसी रही ?" पता चला की आज उनका साप्ताहिक छुट्टी का दिन था तो वो घर पर ही थे लेकिन अगले महीने गाँव जाने की टिकट कराने रविन्द्र सदन आए हुए थे। मैंने फ़िर पूछा -- तो टिकट हो ही गई गई होगी " लेकिन इसका उत्तर मिला "नहीं " साथ ही उनके चेहरे पर एक निराशा का भाव भी दिखा । अगर एक बावर्ची के शब्दों मे कहा जाए त ये मुफ्त मे दिखाई देने वाले भाव ऐसे ही थे जैसे बिरयानी के साथ रायेता मुफ्त आता है। कारण पूछा तो बोले की आरक्षण काऊंटर पर उनकी लड़ाई हो गई। ये सुनते ही मैं सोच मे पड़ गया की शुक्ला जी जैसा मनुष्य जो किसी भी विवाद से कोसों दूर रहता है , अचानक किसी झमेले मे कैसे उलझ गया । विस्तृत कहानी सुनी तो ज्ञात हुआ की बेचारे के साथ बड़ी विडंबना हो गई ।

आरक्षण के कतार मे खड़े शुक्ला जी पसीने से तर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे , तभी एक बंगालन माता जी ने उन्हें पीछे कतार मे खड़े होने को कहा क्योंकि वो वह पहले से कतार मैं खड़ी थी ओर किसी कार्यवश बाहर गई थी। पिछले पैंतालीस मिनट से खड़े शुक्ला जी ने जब यही तर्क देना चाहा तो माताजी के समर्थन मे २-३ बंगबंधू सम्मित्लित हो गए और अपनी एकजुट ध्वनि मे काँव - काँव करने लगे अब तो प्रश्न आत्म -सम्मान का बन आया था , शुक्ला जी भी अड़ गए। बस बोली की महाभारत प्रारंभ होने की देर थी की, हिन्दी ओर अंग्रेजी भाषाओं मे दिव्यास्त्र चलने लगे। और दूर खड़ी बंगालन माताजी महाभारत के पांचाली की भाँती सारे कर्म करा कर मानों इसी बात की प्रतीक्षा कर रहीं थी के कब शुक्ला जी जैसे दुस्शासन को उखाड़ फेका जाए और वो उनके स्थान पर खड़ी होकर अपनी टिकट बनवाए । लेकिन शुक्ला जी भी कच्चे खिलाडियों मे से नहीं थे, वो तो अभिमन्यु की भाँती चक्रव्यूह मे अकेला ही सब का सामना किए जा रहे थे। तभी एक कोने से आवाज़ आई.... " ऐइ ..... ई बिहारी शौब को कोलकाता से भागाओ ..... शाला शोब यहाँ आकर इधर का माहौल खौराब कोरता हाए...." और इस से भी बढ़ कर एक बात उन्हें सुनने को मिली -- " एक बिहारी , सौ बिमारी" कदाचित शुक्ला जी जैसे अभिमन्यु को परास्त करने का बस एक ही ब्रह्मास्त्र बंगबंधुओं के पास रह गया था... जिसका उन्होंने उपयोग कर लिया। वीरगति को प्राप्त शुक्ला जी भी अपने भाषा मे उन बंग्बंधुओं को भला-बुरा बोलते हुए बिना टिकट बनाये ही लौट गए।

उनके साथ घटी इस घटना से मैं काफ़ी क्षुब्ध हो गया । पहले तो उन्हें इन सब तरह की विवादों मे न पड़ने की मंत्रणा दी फ़िर वापिस जाकर टिकट बना लेने की सलाह, अन्यथा आज का यह साप्ताहिक अवकाश यूंही व्यर्थ चला जाता। काफ़ी समझाने के बाद वो दुबारा वहाँ मेरे साथ जाने को सहमत हुए।

उनके साथ सिधियाँ चढ़ता हुआ मैं आरक्षण हॉल तक पहुँचा। स्वयं को पांडव समझने वाले बंगबंधु तो द्रौपदी के साथ कूच कर गए थे, किंतु उनके सेना के कुछ वीर अभी भी वहाँ मौजूद थे। कत्तार लगी हुई थी। मैंने शुक्ला जी को सबसे आगे की पंक्ति मे खड़ा हो जाने को कहा ओर ये भी समझा दिया की अब उन्हें वोही तर्क देने हैं जो बंगबंधु पहले युद्ध मे दे रहे थे। बस क्या... अब हमारा अभिमन्यु पुनः जीवित हो चुका था ओर इस बारउन्हें बासुदेव कृष्ण का भी समर्थन प्राप्त था।

किंतु ये वाम पंथी विरोध अपनी परकाष्ट्था पे था । उनमे से एक बंगबंधू जो उम्र से थोड़े परिपक्वा ओर स्वभाव से थोड़े सज्जन जान पड़ रहे थे , शुक्ला जी के तरफ़ आरूढ़ होकर बोले -- " दादा तोमार ऐ काज त भालो नी ... तुमि आबार बिहारी मतों कोथाबोल छो। ( यानी, भाई साहब आप फ़िर से बिहारी की तरह बातें कर रहे हैं , ये बात अच्छी नहीं है। ) इतना सुनते मुझसे रहा नही गया ओरमैं उन सज्जन के समीप जाकर उनके मोटे काले चश्मे के फ्रेम मे होर्लिक्स के शीशे के तरह लगे लेंस से उनके आखों मे आँखे डालकर खड़ा हो गया ओर बड़े प्रेम से बोला -
तो बंगाली जैसी बातें कैसे करते हैं यह आप ही बतला दीजिये। क्योंकि थोडी देर पहले आप लोग जिसे एक बिहारी के निकृष्ट कार्य नहीं संज्ञा दे रहे थे, वो कार्य आप निज ही कर रहे हैं। कहानी वोही है, बस कहानी के पात्र बदल गए हैं । जिस तरह से आप भाद्रजन " बिहारी " शब्द को गाली के तरह उपयोग मे लाते हैं , वैसे ही बंग शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है ओर आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की शायद ऐसा कार्य धद्दल्ले से हो रहा है। हर एक आलसी ओर कामचोर इंसान को कदाचित इसी विशेषण से अलंकृत किया जाता है। कर्कट प्रवृति का दूसरा नाम बंग प्रवृति हैजो हमेशा एक दूसरे को नीचा दिखाने मे लगे रहते है , संभवतः यह भूल जाते हैं की दूसरों का अपमान करने से उनकी गरिमा कभी नहीं बढ़ सकती। अतः क्षेत्रीयता को गाली बना कर प्रयोग मे लाने से किसी को भी बचना चाहिए। अन्यथा एक दिन क्षेत्रीयता से प्रभावित वैमनस्यता उस ऊंचाई पर पहुच जायेगी , जहाँ हर मनुष्य अपने अस्तित्व को खो कर सिर्फ़ प्रांतीय बन कर रह जायेगा। समुदाय बिहारी हो या बंगाली, या मराठी, गुजराती कुछ भी हो , कभी बुरी नहीं होती बुरे आप और हम जैसे लोग होते हैं जो कभी इन सब चीजों से उठ कर उपर की नहीं सोचते, और इसका प्रत्यक्षा उदाहरण आपके सामने है। किसी को नीचा दिखा कर हम स्वयं को महान नहीं कर सकते, इसके लिए महान कार्य करने पड़ते हैं।

इस प्रशन का उत्तर किन्ही बंगबंधू के पास कदाचित नही था, और मेरी इस बात को इतने ध्यान से सुने जाने का कारण यह था की मैंने अपना उत्तर उन्हीं के भाषा मे दिया था, जिसके उपर मुझे कुछ लोगों नहीं सहमति भी मिलने लगी।

तिरछी नजर से से देखा तो शुक्ला जी अपना टिकट करा कोने मे खड़े हो कर, मेरे बातों को सुन रहे थे ... हमारी इस ज्ञानप्रद बातों से बंग्बंधुओं का ध्यान बाँट गया था ओर शुक्ला जी को टिकट कराने का पर्याप्त समय मिल गया। उनका कार्य सिद्ध हुआ ओर मुफ्त मे बंग बंधुओं का ज्ञानवर्धन भी। बाहर आकर पुनः सिगरेट के धुएं , चाय के चुस्कियों ओर ठहाकों के साथ हमने अपनी संध्या गुजारी, ओर फ़िर रबिन्द्र सदन मेट्रो स्टेशन से अपनी गाड़ी पकड़ कर गंतव्य की तरफ़ रवाना हो गए।

नोट : एक ज्वलंत मुद्दे पर यह व्यंग किसी भी क्षेत्रीय भावना से प्रेरित नहीं है, आपको यह कैसा लगा, इस पर टिपण्णी अवश्य दे।

Wednesday, May 7, 2008

एक गंभीर मुद्दा

सोचा कुछ ओर भी लिखु , अब जब ब्लॉग बना ही लिया है तो अब इसके माध्यम से ही अपने अवांछित समय का सदुपयोग करूं । कुछ अन्य विद्वानों के ब्लॉग ने भी इस दिशा मे उत्प्रेरक का कार्य किया और मैंने फैसला कर ही लिया की कुच्छ गंभीर बातें अपने ब्लॉग पर लिखूंगा। लेकिन ये गंभीर बातें मैं लाऊँ कहा से ये बड़ा ही जटिल प्रशन खड़ा हो गया ।

काफ़ी देर सोच बिचार करने के बाद मैंने अपने मित्र से पूछा .... अगर वो मुझे कुछेक गंभीर मुद्दों पर बात करने का विषय दे, मित्र महोदय जो पेशे से पत्रकार हैं, अपने अंदाज़ मे मुझसे मेरी राय मांगने लगे, ओर उनके पास तो जैसे विषय वस्तु की कमी ही नही थी... देश की उल्टी राजनीति , तजा चल रहे DLF क्रिकेट मे खेल को छोर ब्यापार प्रबंधन की प्राथमिकता तो वहीं खेल के मैदान मे ग्लामर का प्रदर्शन नृत्य सुंदरियों के माध्यम से किए जाने की तर्कसंगतता। ये सब उनके लिए सबसे बड़े गंभीर मुद्दे थे , जिनके उपर मुझे अवश्य ही बात करनी चाहिए । और अगर फ़िर भी कुछ बचा पड़ा रह गया तो रही सही कसर हमारे महाबली " द ग्रेट खली " पूरी कर ही देंगे।

किंतु भगवान् की दया से नाही मेरी राजनीति मे कोई रूचि रही है और मैच फिक्सिंग जैसे दुखांत घटना के बाद क्रिकेट मुझे सज्जनों का खेल मालूम नही पड़ता । वैसे भी खेल के मैदान मे एक खिलाडी का दूसरे सह-खिलाडी को Monkey ( ...माँ की ) बोलना स्वयं ही इस बात का सत्यापन है की क्रिकेट अब भद्रजनों का खेल नही रहा । अतः ये चीजें मुझे बिल्कुल भी आकर्षित नहीं करतीं .... हाँ लेकिन उन नृत्य बालाओं के उत्तेजनापूर्ण उछल- कूद और अन्य शारीरिक गतिविधियाँ एक क्षण के लिए अवश्य लुभातीं हैं , और मन को उद्वेलित कर जातीं हैं। मुझे लगता है , खेल के मैदान मे इनकी उपस्थिति मात्र इसलिए दर्शाई जाती है की अगर खेल नीरस हो रहा हो तो भी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता रहे और स्टेडियम से बाहर जाते हुए किसी भी दल के समर्थक को ऐसा न लगे नहीं उसके टिकेट के पैसे बेकार गए।

सचमुच ये कलयुग अब मात्र घोर कलयुग न रह कर , घोर कल + अर्थ युग बन गया है। सचमुच । अगर अखाडे मे खड़े होकर सारी शारीरिक यातना सहने को कोई तैयार हो जाता है , तो इसका कारण बस ये है की, इसके एवज मे लाखों डॉलर उसके जेब मे ठूंस दिए जाते हैं। और फ़िर हर न्यूज़ चैनल वाला अपने रात के प्राइम टाइम के शो मे बड़े ही गोरान्वित तरीके से इसके लिए महाबली का जय - जयकार करता है। उसके इतिहास, भूगोल, और सारे समाजशास्त्र को दर्शाता है। और देखने वाले लोग भी सिर्फ़ अपने बाल - बच्चो के साथ बैठ कर देखते ही नही हैं , बल्कि अगले दिन अपने ऑफिस , स्कूल मे भी इसकी चर्चा - परिचर्चा मे अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं।

अगर तिवारी जी ( मेरे पत्रकार मित्र) के दृष्टि मे यही गंभीर मुद्दा है तो , मैं फ़िर क्षमा मांगता हूँ। ये उनकी भी गलती नहीं है..... उनके पेशे की गलती है अथवा उनके खडूस बॉस की जो उन्हें हर किसी हरकत मे कोई ने न्यूज़ लाने को बोलता है। इनमे से एक राजनीति को छोर कर कोई मुद्दा मुझे तर्क सांगत नही लगा जिसके उपर टिपण्णी की जा सके । बाकी तो सारे बस सस्ते मनोरंजन के तरीके हैं।

Monday, May 5, 2008

First Love

बहुत दिनों बाद आज इस विषय पर सोचने का मौका मिला , ऐसा लगता है जैसे मस्तिष्क जड़ हो गया हो , भावातिरेक हाथों मे कम्पन ओर लेखनी अवरुद्ध हो गई हो । आज से लगभग पाँच साल पुरानी कहानी जिसमे भावना, नाटक, रोष ओर न जाने कितने ही रसों का समावेश है । वो रस जो हँसी के थे, वो रस जो एक दूसरे को दिखाए जाने वाले बनावटी गुस्से मे थे , वो रस जो सदैव रूठने -मनाने के नाट्य से झलकता था।

जीवन का एक पडाव था वो या फ़िर एक पडाव मे बसा हुआ सारा जीवन यह कहना मुश्किल हो रहा है।

कहते हैं प्रेम अँधा होता है जो उम्र , जाती, सम्प्रदाय और संस्कृति के बंधनों से सदैव उपर रहता है। ओर इसीलिए प्रेम का सामना प्रयोगिकता के धरातल से तब होता है जब यह कुलांचे भरता प्रेम सांसारिक बंधनों के थपेरे खा कर वास्तविकता के भूमि पर गिरता है । तब यह ज्ञात होता है की वास्तविकता कितनी कटु है , कितनी निर्दयी है जो दो निरीह प्राणी के उपर इतना अत्याचार करती है। वास्तविकता ही एक कारक है , जो विवश कर देती है हमें भविष्य , समाज, ओर इसके आधारहीन ढकोसलों को मानने के लिए । तदुपरांत प्रारंभ होता है ह्रदय विदारक वेदना ओर वास्तविकता के दंश को झेलने का क्रियाकलाप जो किसी के भी अन्दर सोये हुए लेखक , कवि , शायर को जगाने के लिए पर्याप्त है।

तेरी खतों का निशाँ मिटाया है,
क्या कहूं ख़ुद पे कैसा सितम धाय है,
दर्द के गुमनाम राहों से गुजर कर ,
हमने रस्म - ऐ - मुहब्बत निभाया है।

उन खतों को तुमने छुआ है,
साथ उनसे तुम्हारा रहा है,
तुम्हारे खुशबू मे वो भी नहाये होंगे,
कितने जज्बात से तुमने उन्हें लिखा है।

मुहब्बत के उन खूबसूरत गवाहों को,
हमने बेरहमी से जलाया है,
दर्द के गुमनाम राहों से गुजर कर,
हमने रस्म- ऐ- मुहब्बत निभाया है।

आज भी उन दिनों की बातें याद कर के अधरों पे स्वतः मुस्कराहट आ जाती है। ओर फ़िर यही सोचता हूँ की , lucky those people are who get true love in their lives, but luckiest are those who get it even for second time........

Friday, May 2, 2008

गाली

सुनने मे काफ़ी बुरा लगता है ये शब्द। ओर अगर मेरी माने तो शायद कोई गाली इतनी बुरी लगती होगी सुनने मे , जितना ये शब्द अकेला बुरा लगता है। दरअसल गाली एक विशेषण है जोकि नकारात्मक भावना से प्रेरित होकर दिया जाता है अतः आप इसे एक उच्च कोटी के नकारात्मक विशेषण की भी संज्ञा दे सकते हैं। मूलतः गालियों का अगर वर्गीकरण किया जाए , तो इन्हे दो तरह के श्रेणी मे बाटा जा सकता है।
१) मानविक गालियाँ
२) पाश्वीक गालियाँ
पाश्वीक गालियों मे व्यक्ति विशेष की तुलना किसी पशु से की जाती है। जैसे - कुत्ता, गधा, सूअर , आदि। मानविक गालियाँ वो होतीं हैं , जिनमे मनुष्य की तुलना गिरे हुए स्तर के अन्य किसी मनुष्य से की जाती है। उदाहरणस्वरूप ; मूर्ख, कमीना, पापी इत्यादी इस श्रेणी की गालियाँ हैं...
मानविक गालियों को भी आगे दो भागों मे विभाजित किया जा सकता है।
क) वैचारिक गालियाँ
ख़) साम्बंधिक गालियाँ
वैचारिक गालियाँ किसी को उसके ओछे विचार के कारण दी जातीं हैं। जैसे नीच , पाखंडी , दुष्ट किंतु साम्बंधिक गालियाँ वो होतीं हैं जिनसे किसी के अवांछित सम्बन्ध की दुहाई दी जाती है अथवा कोई ऐसी गाली जिसमे पीड़ित के सगे - संबंधियों को भला बुरा कहा जाता है । अब यहाँ एक यक्ष प्रशन यह खड़ा होता है की , इनमे से सबसे निकृष्ट गाली कौन सी है? आमतौर पर हमें उपर्युक्त सभी तरह की गालियाँ को यदा-कदा , चलते-फिरते सुनने का अवसर प्राप्त हो ही जाता है। और ग़लत न होगा ये कहना के शायद गालियाँ आज के भाग - दौड़ भरी जीवनशैली मे हमारी भाषा का एक हिस्सा बन गयीं है। आज दोस्तों के बीच एक-दूसरे को मजाक- ठिठोली मे "साला " और अन्य साम्बंधिक गालियाँ देना एक आम सी बात हो गई है, जिन्हें बुरा नहीं माना जाता। लेकिन कभी कभी यह भी देखने को मिलता है की, कोई सामन्य पाश्वीक गाली भी बहुत बड़े फसाद का कारण बन जाती है। अतः यह निष्कर्ष सहजता से निकला जा सकता है की, वस्तुतः कोई गाली बुरी नहीं होती अपितु वो तरीका बुरा होता है, जिसमे गाली दी जाती है।

Thursday, May 1, 2008

मिथिला मे पर्यटन विकास की संभावना

This is a well debated issue and has been mooted over several times but still thought of presenting my insight regarding the same.

Tourism has got various forms... somewhr it is cultural tourism, some whr it is religious tourism, somwhr it is adventurous tourism or some whr it is sex tourism and many more.... for improving the tourism capacity of a given destination, there are some and certain factors। these are some IFs and BUTs before thinking about incresing the tourism potential of a given spot ।

1. is the place or destination really worth being a good tourist spot?
yes. some what.

2. what kind of tourism is given an emphasis?
Cultural tourism. as the place has a glorious history of 3500 years and the continuity of the cultural activities are still very prominent in the region.

3. are there proper infrastructure in order to cater to the need of tourists?
no. it is not even nil, but the figure goes in negative . reason being the place is lacking in good quality hotels or even good quality budget category accommodation , pathetic transport, miserable condition of life driving infrastructures like electricity and water, Zero support from the administration's end .

4. Nature's support?
again not very very good , but some what . the normal holiday season is Summer and during that time the atmosphere around is so hot and uncomfortable that the localite resident even dont wish staying there, and god forbid if it rained, means the tourist will loose out his life in flood. winter is the one and only season when people will wish going to those places, and that too just a few months as not everyone gets a long holiday during winter. and even if they get one they prefer going to hill stations as they wish to see mountains , snows etc and there are no such natural beauty in Mithila.

5. wud the localite people be able to adjust with tourists?
ofcourse. after all guest is incarnation of God , thats wat we maithil think about.

Where The Mind Is Without Fear

Where the mind is without fear and the head is held high;
Where knowledge is free;
Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls;
Where words come out from the depth of truth;
Where tireless striving stretches its arms towards perfection;
Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desert sand of dead habit;
Where the mind is led forward by thee into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my fater ; let my country awake .
- Gurudev

यथार्थ

यथार्थ क्या है?? क्या तात्पर्य होता है यथार्थ का? अगर हम इसका शाब्दिक अर्थ जानने का प्रयास करें तो ये शब्द "वास्तविकता " का पर्यायवाची जान परता है। अर्थात किसी वस्तु अथवा व्यक्ति मी निहित उसकी सत्यता , जिसे हम अंग्रेजी मी Realism कहते हैं। अब प्रश्न खड़ा होता है की हमें किन चीजों मे यथार्थ देखने को मिलता है - इसका सरल उत्तर है , मनुष्य के अतिरिक्त ब्रह्माण्ड के हर हर चीज में । निर्जीव वस्तुओं का यथार्थ तो प्रत्यक्ष होता है, जैसे एक कलम का यथार्थ है लिखना , उसी तरह अन्य निर्जीव वस्तुओं का भी यथार्थ अत्यन्त सरल होता है। किंतु मनुष्य के साथ यह बिल्कुल विपरीत है। मनुष्य का यथार्थ प्रत्यक्ष नही होता अपितु छुपा हुआ होता है। उसका यथार्थ वो नही होता जो वह दिखाता है, बल्कि उसका यथार्थ वो होता है जो छुपाता है, वही उसकी वास्तविकता होती है जो दृश्य नही होती। मनुष्य हमेशा अपने यथार्थ से परे रहता है , और सांसारिक उलझनों मे अपनी सत्यता खो देता है।