Tuesday, September 23, 2008

एक यादगार यात्रा

चौदह अगस्त की वो रात , बारिश से सराबोर और सुरक्षा मायनों मे निहायत ही सख्त , हाँ !! यही वो स्याह नम रात थी जिस दिन मैं दिल्ली एयेरपोर्ट पर उतरा। रात के नौ बज रहे थे मेरी फ्लाईट बिल्कुल निर्धारित समय पर मुझे मेरे गंतव्य तक पहुँचा दिया था। एरपोर्ट पर उतारते ही देखा बरसा रानी अपने हलके फुहारों से मेरा स्वागत कर रही थी।

यद्यपि दिल्ली का दौरा भी मेरे नियमित दौरों मे से एक है, लेकिन ये दौरा उन सबसे ख़ास था कारण की एक पंथ तीन काज का लक्ष्य जो मैंने बना रखा था उसकी परिणति मुझे पूरी होती दिख रही थी। दरअसल बहोत सालों बाद स्वतंत्रता दिवस शुक्रवार को आ गिरा जिसके वजह से मुझे लंबे सप्ताहंत का समय मिल गया। संजोग से कुछ कार्यालयीय काम भी सामने हो आये थे एवं रक्षाबंधन का पावन त्यौहार भी इस लंबे सप्ताहांत को और भी विस्तृत कर रहा था। भला दिल्ली स्थित बहन से मुलाक़ात का इस से अच्छा समय ओर क्या हो सकता था जब बिगत छह सालों बाद मैं रक्षा बंधन मे उसके साथ रहूँ । मेरे आने की की पूर्व सूचना मैंने अपने धर्म प्रेमिकाजी को भी दे रखा था जिस से वो भी काफ़ी उत्साहित थीं।
धर्म प्रेमिकाजी अत्यन्त ही आधुनिक विचारों की नारी हैं जिनके लिए उनकी मानसिक स्वतंत्रता बहुत जादा मायने रखती है। अपनी स्वतंत्रता की कोई सीमा उन्हें बर्दाश्त नहीं , अतः उनके साथ हरबार तार्किक अथवा अतार्किक विवादों मे मुझे हथियार डालना पड़ता है। खैर जो भी हों, वो हैं बहुत दिल वाली तभी दिलवालों के शहर दिल्ली के बारे थोड़ा भी बुरा सुनना उन्हें गवारा नहीं। वैसे एक राज की बात बताऊँ ...... इस बात पे हमारी कई बार ठन भी गई है, ओर उससे भी बड़ी राज की बात ये की मुझे हमेशा की तरह उनके सामने घुटने टेकने पड़े हैं ओर इस बात पर सहमत होना पड़ा है की दिल्ली तथा दिल्ली की जीवनशैली सबसे उत्तम है तथा यह महानगरी ही रहने - बसने की उत्कृष्ट स्थान है।
खैर जो भी हो...... उपरोक्त तीन कारणों के वजह से मैं अपनी इस दिल्ली यात्रा को काफ़ी ख़ास बता रहा था।

तो, हम बात कर रहे थे चौदह अगस्त की रात की जिस दिन मेरा भुबनेश्वर से प्रस्थान था। उत्तेजना ओर व्यग्रता का समागम मेरे चेहरे पर सरलता से देखा जा सकता था। उत्तेजना ऐसी की अपने २ घंटे के उड़ान मे मैंने एक बार भी अपना मनपसंद उपन्यास नहीं पढ़ा, मस्तिष्क मे अगर कुछ चल रहा था तो बस कल्पना ओर सोच। इन्ही सोचों ओर बारिश के फुहारों के बीच निर्धारित समय पे दिल्ली पहुँचा । बगैज क्लेम पे पहुच कर मैंने अपने सकुशल लैंडिंग का मेसेज बहन एवं धर्म प्रेमिकाजी को कर दिया था । एअरपोर्ट से बाहर निकलते देखा तो झामा-झाम बारिश और कम से कम हजार दो हजार लोगों का हुजूम। पता चला की बाहर कोई सवारी गाड़ी उपलब्ध नहीं है, और अत्यन्त बुरे ट्रैफिक ब्यबस्था के वजह से कोई सवारी गाड़ी या टेक्सी एअरपोर्ट तक पहुँच नहीं पा रही। साथ साथ ये भी पता चला की पिछले डेढ़ - दो घंटे से यही आलम हो रखा है।
कुछ बिदेशी लोगों का भी समूह इसी चक्कर मे वहां तकरीबन पिछले एक घंटे से खड़ा था , उनकी बातें सुनी... एक स्त्री अपने पति ( संभवतः) से बोल रही थी ... " oh it is getting too hot n humid here, this much of crowd, oust the airport" पतिदेव काफ़ी विचारपूर्ण भाव मे बोल ".....This is India darling that houses a population thirty times more than that of our land"

इन्ही सारे उधेरबुन के बीच मैं भी फसा सोच कर रहा था की अब क्या करें, मेरे दिल्ली के किसी भी दौरे मे मुझे ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था। एरपोर्ट के बाहर बायें सड़क पे देखा तो सड़क सड़क नहीं बल्कि कार पार्किंग दिख रही थी। ऐसी दुविधाजनक स्थिति मे किम्कर्तव्य विमूढ़ हुआ मैं अपने आप से विचार कर रहा था की ....टें टें टें टें करके मोबाइल बज उठा।
देखा तो "1 message recieved" ........ मैंने फटाफट read के बट्टन को संप्रेषित किया। प्रेमिका जी का मेसेज " ... welcome to jungle baby" मैं समझा गया की लगता है यही स्थिति पूरे दिल्ली की है। आधे घंटे की और प्रतीक्षा के बाद सामने कोई उपाय न देख कर मैंने स्वयम ही हाथ पाओ मारने का मन बना लिया ।
वो भला हो उस ट्रफिक हवालदार का जिसने मुझे एक टूटी हुई दीवाल लाँघकर संकरे से अंधेरे गली से अगले मोड़ तक जाने की सलाह दी। और कंधे पे बैग एवं हाथ मे सामानों की त्रोल्ली लिए मैं उस रास्ते पे कूच कर गया। अपने इस दुविधा जनक स्थिति से मैंने बहन एवं प्रेमिकाजी को पहले ही अवगत करा चुका था। निरंतर अंतराल पे हो रहे बारिश के बीच मैं बस आँख खोले अपने दिशा की तरफ़ चला जा रहा था की फ़िर से मोबाइल की टें टें टें टें ..... इस बार भी प्रेमिका जी ही हमे याद फरमा रहीं थीं और मेरी दयनीय अवस्था पर तरस खा कर सहानुभूति के उनके दो शब्द मेरे बदन मे शूल की तरह चुभ रहे थे। ".... oh..... cannt u bear this much for me sweetheart??"

खैर सहानुभूति प्रकट करने के उनके इस तरीके से मुझे कुछ जादा आश्चर्य नहीं हुआ... क्योंकि मैं समझता था की शायद वो मेरी स्थिति से अवगत नहीं थीं..... अब तक एक घंटे की पदयात्रा के पश्चात् मुझे रास्ता थोड़ा -थोड़ा साफ़ दिखने लगा था लेकिन किसी सवारी की गाड़ी ने अब तक मेरे उपर कृपा नहीं की थी। नतीजतन मैं तकरीबन ५-६ किलोमीटर चल चुका था और बारिश का अच्छा प्रकोप भी झेल चुका था अब मुझे अपने भीगने की परवाह नहीं थी क्योंकि शायद उस से जादा मैं भीग ही नहीं सकता था।
घर पर बहन भी अलग चिंतित थीं और हर पाँच मिनट मेरी स्थिति जानने के लिए उत्सुक। जीजाजी मुझे लिवा लेने के लिए घर से निकल चुके थे अतः मैं उनसे भी नियमित संपर्क मे था, यह जानते हुए भी की उन्हें मुझे तक पहुँचने मे और बीभत्सा ट्राफिक का सामना करते करते २ घंटे और लग जायेंगे अपितु मैं अपने राह चला जा रहा था। आज गुरुदेव रविन्द्र नाथ टगोर की एक पंक्ति याद आ रही थी। "...... तबे एकला चलो रे....."
अब तक शायद मैंने आधा रास्ता तय कर लिया था। मेरी घड़ी रात के साधे ग्यारह का समय दिखा रही थी। सुन सान रास्ता जिस पर एक्के - दुक्के सवारी जूँ... जूँ की ध्वनि के साथ पार हो रहे थे और अपने पीछे सन्नाटा और एक परिस्थिति का मारा हुआ एक लाचार इंसान छोरे जाते थे। तकरीबन २० मिनट के पदयात्रा के पश्चात् सामने एक वैन खड़ी । दिखी वैनवाला गाड़ी रोक कर किसी से फ़ोन पे बात कर रहा था , संभवतः इस फ़ोन के वजह से ही उसने अपनी गाड़ी रोकी होगी। उसे उसके बीवी बच्चों का वास्ता देने के बाद वो मुझे नजदीकी मोर तक छोर देने पर राजी हुआ , मैं खुश था की अब कम से कम उस मोड़ के पास मुझे कुछ अन्य सवारी मिल सकती है।
प्रेमिका जी का मेसेज आना बंद हो चुका था संभवतः वो अपने परिवार के साथ कहीं बाहर डिनर पर गयीं थीं । दाद देनी पड़ेगी उनके दिल्ली प्रेम , की इस ऐतिहासिक ट्राफिक जाम मे भी उनका उत्साह ठंडा नहीं हुआ। अब तक गोपीनाथ मोड़ आ चुका था । मैंने वैन वाले भाई साहब और उनके फ़ोन वाले सुभचिन्तक को धन्यवाद ज्ञापित कर उनसे अलविदा लिया। सामने के दूकान से चाय और एक सिगरेट के एक कश के पश्चात थोडी जान मे जान आई। मेरी घड़ी की दोनों सुइयां बराबर हो चुकी थी। पूरे तीन घंटे हो चुके थे मुझे दिल्ली एअरपोर्ट पहुचे हुए और अभी तक मैं बस आधे रास्ते पे खड़ा दूसरी सवारी की प्रतीक्षा ही कर रहा था। लेकिन अन्तोगत्वा इश्वर को मेरे इस तपस्या के ऊपर तरस खाना ही पड़ा चाय की प्याली समाप्त हुई और सामने एक टैक्सी आकर रुकी। गंतव्य स्थान जानने के बाद उसने मुझे गाड़ी मे बैठने का इशारा किया। भगवान् का आभार मानते हुए मैं भी अन्दर बैठ हो चला। पूरे रास्ते बीभत्सा ट्राफिक और रास्ते पर लगे लोगों के हुजूम को निहारता हुआ मैं किसी तरह घर पंहुचा। शहर के अंदर ट्राफिक की स्थिति का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं की महज पाँच किलोमीटर का सफर तय करने मे मुझे अगले डेढ़ घंटे लग गए। मेरी घड़ी अब रात के एक बजकर बीस मिनट का समय दिखा रही थी। जैसे तैसे घर पहुँचा , साधे पाँच घंटे के संघर्ष के बाद जान मे जान आई। बहन से मुलाकात होते ही आधा तनाव हल्का हो गया। प्रेमिका जी अभी तक मेरे सकुशल पहुचने की कामना कर रहीं थी, उन्हें सूचित करने के पश्चात भोजनादि के क्रियाक्रम से नपत कर मैं भी शीघ्र अपनी शैया पे पसर गया। इश्वर की दया से मेरा बाकी का दिल्ली का ठहराव काफ़ी सुखद रहा। लेकिन इस दिल्ली के दौरे को भुलाया नही जा सकता।

2 comments:

ओंकारनाथ मिश्र said...

Nandan Ji,

Aapki dardnaak daastan abhi padhi....meri poori sahanubhooti aapke saath hai..lekin maine bhi dilli me poore 6 saal gujare hain aur aapkmo ye baat maanani hogi ki dilli me jo baat hai wo maine desh ke aur bade shaharon(Bombay, banagalore aur Hyderbad) me nahi dekha. Ye aashcharya ki baat ki aapko airport pe swari nahi mili.Airport pe mujhe lene ab to mere agraj aa jaaye karte hain to mujhe koi anubhav nahi..lekin railway station pe maine kabhi mushkil nahi paai...par itna jaroor kahunga ki itne priyajano se milane ko itna kashst uthana to banta hai..LOL

Nandan Jha said...

aapki sahanubhoti ke liye dhanyawaad bhaai ji.... kintu antogatwa aaphu yahi bat bol gaye....jo sab logon ne kahi...

humko samjh me nahin aa raha hai ki agar hum priyajanon se mile... to priyajanon ko bhi to humse milne ka mauka prapt hua.... tab jhutthe-mutthe khaali hum hi kasht ke patra kyo hue....
khair.... yaad aati hai oos kashat bhari raat ki to aatma kaap jaati hai humari....

waise iske pehle dilli me humaare saath bhi kabhi aisa pehle nahin hua tha.... lekin jab kismat hoga gol to kaise bajega dhol??? :(