Monday, September 22, 2008

पढ़े - लिखे आतंक का स्वरुप

अगर कोई अनपढ़ अंगूठा छाप इंसान रोजी-रोटी और अभाव के कारण अपराध और अन्याय का रास्ता इख्तियार कर ले तो हम उसे उसके मजबूरी और हालत के हाथों विवशता की संज्ञा दे सकते हैं। लेकिन अगर वोही कोई पढ़ा लिखा आदमी जो आज के तारीख मे उच् एवं उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी आतंकवाद जैसे बर्बरता के गोद मे अपना भविष्य देखता है उसे क्या कहेंगे आप??
जी हाँ !!! अभी हालिए आतंकी घटनाओं के बाद उजागर हुए चाँद युवा आतंकियों के पृष्ठभूमि पर अगर नजर डालें तो शायद ये तथ्य आपको चौंका सकता है।

सफदर नागौरी - (सिमी का चीफ) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी से की है पी एच डी।
अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर - (सोफ्त्वायेर इंजिनियर ) शुरू के कुछ साल आई-टी क्षेत्र से जुरा था।
आतिफ उर्फ बशीर - फरीदाबाद के एंजीनियरिंग कॉलिज से बी - टेक।
शकील - जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स मे एम। ए. कर रहा है।
साकिब - मनिपाल यूनिवर्सिटी से डिस्टेंस लर्निंग से एमबीए का क्षात्र ।

कहने का मतलब ये की ये आतंक और आतंक वाद की प्रशिक्षा देने वाले कट्टरपंथीयों की पहुच अब सिर्फ़ मदरसों तक ही नहीं बल्कि विश्वविद्यालयों तक हो गई है। और चूँकि छात्र वर्ग सबसे जोशीला एवं कर्मठ होता है अतः उन्हें निशाना बनाना सबसे आसान हो जाता है। मुद्दा ये नहीं है की हालिया आतंकी कारनामों को अंजाम देने वाले दोषियों को कैसे पकडा जाए बल्कि ये है की उस सोच के बीज को जड़ से कैसे उन्मूलित करें जो हमारे इस जेनरेशन नेक्स्ट को खोखला करता जा रहा है।

यकीन मानिए उपरोक्त लिखित किसी भी आतंकवादी के परिवार वालों पर वो अत्याचार नहीं हुए हैं जिनकी वजह से भावनाओं मे आकर ये हिंसक हो उठे, ये सभी अच्छे घर और समाज से आने वाले आज के नौजवान हैं जिनके माता - पिता ने इनसे हजारों सपने जोर रखे हैं। फ़िर किन हालातों मे ये गुमराह हो जाते हैं? और कौन इन्हे गुमराह करता है?? किसके उकसावे मे आकर ये इतने बर्बर हो जाते हैं की एक सामूहिक हत्याकाण्ड के बाद खुशी मे जश्न मानते हैं? और इस से भी बड़ी दुःख की बात ये है की अपने हर कारनामे को अल्लाह की लड़ाई और जेहाद का नाम देना यानी अपने पाप को अल्लाह के नाम पे मढ़ देना।

मुझे लगता है , की इन लोगों को इस्लाम की तालीम ढंग से नहीं मिली और ये लोग पैगम्बर साहेब के इस्लामी सीखों के बजाये उन सीखों पर अमल करते हैं जो इस्लाम तालिबान ने सिखाया है।

ऐसे एक माहौल मे मेरा मन यही कहता है की हमारी शिक्षा प्रणाली मे धार्मिक शिक्षा एक ऐसी अनवार्य ब्यबस्था होनी चाहिए जो की बच्चों को प्रारंभ से ही अपने-अपने धर्मं और संस्कारों की जानकारी दे ताकि बाद के युवावस्था मे इन्हे इन आधारभूत मसलों पर गुमराह न किया जा सके.

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