चौदह अगस्त की वो रात , बारिश से सराबोर और सुरक्षा मायनों मे निहायत ही सख्त , हाँ !! यही वो स्याह नम रात थी जिस दिन मैं दिल्ली एयेरपोर्ट पर उतरा। रात के नौ बज रहे थे मेरी फ्लाईट बिल्कुल निर्धारित समय पर मुझे मेरे गंतव्य तक पहुँचा दिया था। एरपोर्ट पर उतारते ही देखा बरसा रानी अपने हलके फुहारों से मेरा स्वागत कर रही थी।
यद्यपि दिल्ली का दौरा भी मेरे नियमित दौरों मे से एक है, लेकिन ये दौरा उन सबसे ख़ास था कारण की एक पंथ तीन काज का लक्ष्य जो मैंने बना रखा था उसकी परिणति मुझे पूरी होती दिख रही थी। दरअसल बहोत सालों बाद स्वतंत्रता दिवस शुक्रवार को आ गिरा जिसके वजह से मुझे लंबे सप्ताहंत का समय मिल गया। संजोग से कुछ कार्यालयीय काम भी सामने हो आये थे एवं रक्षाबंधन का पावन त्यौहार भी इस लंबे सप्ताहांत को और भी विस्तृत कर रहा था। भला दिल्ली स्थित बहन से मुलाक़ात का इस से अच्छा समय ओर क्या हो सकता था जब बिगत छह सालों बाद मैं रक्षा बंधन मे उसके साथ रहूँ । मेरे आने की की पूर्व सूचना मैंने अपने धर्म प्रेमिकाजी को भी दे रखा था जिस से वो भी काफ़ी उत्साहित थीं।
धर्म प्रेमिकाजी अत्यन्त ही आधुनिक विचारों की नारी हैं जिनके लिए उनकी मानसिक स्वतंत्रता बहुत जादा मायने रखती है। अपनी स्वतंत्रता की कोई सीमा उन्हें बर्दाश्त नहीं , अतः उनके साथ हरबार तार्किक अथवा अतार्किक विवादों मे मुझे हथियार डालना पड़ता है। खैर जो भी हों, वो हैं बहुत दिल वाली तभी दिलवालों के शहर दिल्ली के बारे थोड़ा भी बुरा सुनना उन्हें गवारा नहीं। वैसे एक राज की बात बताऊँ ...... इस बात पे हमारी कई बार ठन भी गई है, ओर उससे भी बड़ी राज की बात ये की मुझे हमेशा की तरह उनके सामने घुटने टेकने पड़े हैं ओर इस बात पर सहमत होना पड़ा है की दिल्ली तथा दिल्ली की जीवनशैली सबसे उत्तम है तथा यह महानगरी ही रहने - बसने की उत्कृष्ट स्थान है।
खैर जो भी हो...... उपरोक्त तीन कारणों के वजह से मैं अपनी इस दिल्ली यात्रा को काफ़ी ख़ास बता रहा था।
तो, हम बात कर रहे थे चौदह अगस्त की रात की जिस दिन मेरा भुबनेश्वर से प्रस्थान था। उत्तेजना ओर व्यग्रता का समागम मेरे चेहरे पर सरलता से देखा जा सकता था। उत्तेजना ऐसी की अपने २ घंटे के उड़ान मे मैंने एक बार भी अपना मनपसंद उपन्यास नहीं पढ़ा, मस्तिष्क मे अगर कुछ चल रहा था तो बस कल्पना ओर सोच। इन्ही सोचों ओर बारिश के फुहारों के बीच निर्धारित समय पे दिल्ली पहुँचा । बगैज क्लेम पे पहुच कर मैंने अपने सकुशल लैंडिंग का मेसेज बहन एवं धर्म प्रेमिकाजी को कर दिया था । एअरपोर्ट से बाहर निकलते देखा तो झामा-झाम बारिश और कम से कम हजार दो हजार लोगों का हुजूम। पता चला की बाहर कोई सवारी गाड़ी उपलब्ध नहीं है, और अत्यन्त बुरे ट्रैफिक ब्यबस्था के वजह से कोई सवारी गाड़ी या टेक्सी एअरपोर्ट तक पहुँच नहीं पा रही। साथ साथ ये भी पता चला की पिछले डेढ़ - दो घंटे से यही आलम हो रखा है।
कुछ बिदेशी लोगों का भी समूह इसी चक्कर मे वहां तकरीबन पिछले एक घंटे से खड़ा था , उनकी बातें सुनी... एक स्त्री अपने पति ( संभवतः) से बोल रही थी ... " oh it is getting too hot n humid here, this much of crowd, oust the airport" पतिदेव काफ़ी विचारपूर्ण भाव मे बोल ".....This is India darling that houses a population thirty times more than that of our land"
इन्ही सारे उधेरबुन के बीच मैं भी फसा सोच कर रहा था की अब क्या करें, मेरे दिल्ली के किसी भी दौरे मे मुझे ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था। एरपोर्ट के बाहर बायें सड़क पे देखा तो सड़क सड़क नहीं बल्कि कार पार्किंग दिख रही थी। ऐसी दुविधाजनक स्थिति मे किम्कर्तव्य विमूढ़ हुआ मैं अपने आप से विचार कर रहा था की ....टें टें टें टें करके मोबाइल बज उठा।
देखा तो "1 message recieved" ........ मैंने फटाफट read के बट्टन को संप्रेषित किया। प्रेमिका जी का मेसेज " ... welcome to jungle baby" मैं समझा गया की लगता है यही स्थिति पूरे दिल्ली की है। आधे घंटे की और प्रतीक्षा के बाद सामने कोई उपाय न देख कर मैंने स्वयम ही हाथ पाओ मारने का मन बना लिया ।
वो भला हो उस ट्रफिक हवालदार का जिसने मुझे एक टूटी हुई दीवाल लाँघकर संकरे से अंधेरे गली से अगले मोड़ तक जाने की सलाह दी। और कंधे पे बैग एवं हाथ मे सामानों की त्रोल्ली लिए मैं उस रास्ते पे कूच कर गया। अपने इस दुविधा जनक स्थिति से मैंने बहन एवं प्रेमिकाजी को पहले ही अवगत करा चुका था। निरंतर अंतराल पे हो रहे बारिश के बीच मैं बस आँख खोले अपने दिशा की तरफ़ चला जा रहा था की फ़िर से मोबाइल की टें टें टें टें ..... इस बार भी प्रेमिका जी ही हमे याद फरमा रहीं थीं और मेरी दयनीय अवस्था पर तरस खा कर सहानुभूति के उनके दो शब्द मेरे बदन मे शूल की तरह चुभ रहे थे। ".... oh..... cannt u bear this much for me sweetheart??"
खैर सहानुभूति प्रकट करने के उनके इस तरीके से मुझे कुछ जादा आश्चर्य नहीं हुआ... क्योंकि मैं समझता था की शायद वो मेरी स्थिति से अवगत नहीं थीं..... अब तक एक घंटे की पदयात्रा के पश्चात् मुझे रास्ता थोड़ा -थोड़ा साफ़ दिखने लगा था लेकिन किसी सवारी की गाड़ी ने अब तक मेरे उपर कृपा नहीं की थी। नतीजतन मैं तकरीबन ५-६ किलोमीटर चल चुका था और बारिश का अच्छा प्रकोप भी झेल चुका था अब मुझे अपने भीगने की परवाह नहीं थी क्योंकि शायद उस से जादा मैं भीग ही नहीं सकता था।
घर पर बहन भी अलग चिंतित थीं और हर पाँच मिनट मेरी स्थिति जानने के लिए उत्सुक। जीजाजी मुझे लिवा लेने के लिए घर से निकल चुके थे अतः मैं उनसे भी नियमित संपर्क मे था, यह जानते हुए भी की उन्हें मुझे तक पहुँचने मे और बीभत्सा ट्राफिक का सामना करते करते २ घंटे और लग जायेंगे अपितु मैं अपने राह चला जा रहा था। आज गुरुदेव रविन्द्र नाथ टगोर की एक पंक्ति याद आ रही थी। "...... तबे एकला चलो रे....."
अब तक शायद मैंने आधा रास्ता तय कर लिया था। मेरी घड़ी रात के साधे ग्यारह का समय दिखा रही थी। सुन सान रास्ता जिस पर एक्के - दुक्के सवारी जूँ... जूँ की ध्वनि के साथ पार हो रहे थे और अपने पीछे सन्नाटा और एक परिस्थिति का मारा हुआ एक लाचार इंसान छोरे जाते थे। तकरीबन २० मिनट के पदयात्रा के पश्चात् सामने एक वैन खड़ी । दिखी वैनवाला गाड़ी रोक कर किसी से फ़ोन पे बात कर रहा था , संभवतः इस फ़ोन के वजह से ही उसने अपनी गाड़ी रोकी होगी। उसे उसके बीवी बच्चों का वास्ता देने के बाद वो मुझे नजदीकी मोर तक छोर देने पर राजी हुआ , मैं खुश था की अब कम से कम उस मोड़ के पास मुझे कुछ अन्य सवारी मिल सकती है।
प्रेमिका जी का मेसेज आना बंद हो चुका था संभवतः वो अपने परिवार के साथ कहीं बाहर डिनर पर गयीं थीं । दाद देनी पड़ेगी उनके दिल्ली प्रेम , की इस ऐतिहासिक ट्राफिक जाम मे भी उनका उत्साह ठंडा नहीं हुआ। अब तक गोपीनाथ मोड़ आ चुका था । मैंने वैन वाले भाई साहब और उनके फ़ोन वाले सुभचिन्तक को धन्यवाद ज्ञापित कर उनसे अलविदा लिया। सामने के दूकान से चाय और एक सिगरेट के एक कश के पश्चात थोडी जान मे जान आई। मेरी घड़ी की दोनों सुइयां बराबर हो चुकी थी। पूरे तीन घंटे हो चुके थे मुझे दिल्ली एअरपोर्ट पहुचे हुए और अभी तक मैं बस आधे रास्ते पे खड़ा दूसरी सवारी की प्रतीक्षा ही कर रहा था। लेकिन अन्तोगत्वा इश्वर को मेरे इस तपस्या के ऊपर तरस खाना ही पड़ा चाय की प्याली समाप्त हुई और सामने एक टैक्सी आकर रुकी। गंतव्य स्थान जानने के बाद उसने मुझे गाड़ी मे बैठने का इशारा किया। भगवान् का आभार मानते हुए मैं भी अन्दर बैठ हो चला। पूरे रास्ते बीभत्सा ट्राफिक और रास्ते पर लगे लोगों के हुजूम को निहारता हुआ मैं किसी तरह घर पंहुचा। शहर के अंदर ट्राफिक की स्थिति का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं की महज पाँच किलोमीटर का सफर तय करने मे मुझे अगले डेढ़ घंटे लग गए। मेरी घड़ी अब रात के एक बजकर बीस मिनट का समय दिखा रही थी। जैसे तैसे घर पहुँचा , साधे पाँच घंटे के संघर्ष के बाद जान मे जान आई। बहन से मुलाकात होते ही आधा तनाव हल्का हो गया। प्रेमिका जी अभी तक मेरे सकुशल पहुचने की कामना कर रहीं थी, उन्हें सूचित करने के पश्चात भोजनादि के क्रियाक्रम से नपत कर मैं भी शीघ्र अपनी शैया पे पसर गया। इश्वर की दया से मेरा बाकी का दिल्ली का ठहराव काफ़ी सुखद रहा। लेकिन इस दिल्ली के दौरे को भुलाया नही जा सकता।
Tuesday, September 23, 2008
Monday, September 22, 2008
पढ़े - लिखे आतंक का स्वरुप
अगर कोई अनपढ़ अंगूठा छाप इंसान रोजी-रोटी और अभाव के कारण अपराध और अन्याय का रास्ता इख्तियार कर ले तो हम उसे उसके मजबूरी और हालत के हाथों विवशता की संज्ञा दे सकते हैं। लेकिन अगर वोही कोई पढ़ा लिखा आदमी जो आज के तारीख मे उच् एवं उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी आतंकवाद जैसे बर्बरता के गोद मे अपना भविष्य देखता है उसे क्या कहेंगे आप??
जी हाँ !!! अभी हालिए आतंकी घटनाओं के बाद उजागर हुए चाँद युवा आतंकियों के पृष्ठभूमि पर अगर नजर डालें तो शायद ये तथ्य आपको चौंका सकता है।
सफदर नागौरी - (सिमी का चीफ) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी से की है पी एच डी।
अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर - (सोफ्त्वायेर इंजिनियर ) शुरू के कुछ साल आई-टी क्षेत्र से जुरा था।
आतिफ उर्फ बशीर - फरीदाबाद के एंजीनियरिंग कॉलिज से बी - टेक।
शकील - जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स मे एम। ए. कर रहा है।
साकिब - मनिपाल यूनिवर्सिटी से डिस्टेंस लर्निंग से एमबीए का क्षात्र ।
कहने का मतलब ये की ये आतंक और आतंक वाद की प्रशिक्षा देने वाले कट्टरपंथीयों की पहुच अब सिर्फ़ मदरसों तक ही नहीं बल्कि विश्वविद्यालयों तक हो गई है। और चूँकि छात्र वर्ग सबसे जोशीला एवं कर्मठ होता है अतः उन्हें निशाना बनाना सबसे आसान हो जाता है। मुद्दा ये नहीं है की हालिया आतंकी कारनामों को अंजाम देने वाले दोषियों को कैसे पकडा जाए बल्कि ये है की उस सोच के बीज को जड़ से कैसे उन्मूलित करें जो हमारे इस जेनरेशन नेक्स्ट को खोखला करता जा रहा है।
यकीन मानिए उपरोक्त लिखित किसी भी आतंकवादी के परिवार वालों पर वो अत्याचार नहीं हुए हैं जिनकी वजह से भावनाओं मे आकर ये हिंसक हो उठे, ये सभी अच्छे घर और समाज से आने वाले आज के नौजवान हैं जिनके माता - पिता ने इनसे हजारों सपने जोर रखे हैं। फ़िर किन हालातों मे ये गुमराह हो जाते हैं? और कौन इन्हे गुमराह करता है?? किसके उकसावे मे आकर ये इतने बर्बर हो जाते हैं की एक सामूहिक हत्याकाण्ड के बाद खुशी मे जश्न मानते हैं? और इस से भी बड़ी दुःख की बात ये है की अपने हर कारनामे को अल्लाह की लड़ाई और जेहाद का नाम देना यानी अपने पाप को अल्लाह के नाम पे मढ़ देना।
मुझे लगता है , की इन लोगों को इस्लाम की तालीम ढंग से नहीं मिली और ये लोग पैगम्बर साहेब के इस्लामी सीखों के बजाये उन सीखों पर अमल करते हैं जो इस्लाम तालिबान ने सिखाया है।
ऐसे एक माहौल मे मेरा मन यही कहता है की हमारी शिक्षा प्रणाली मे धार्मिक शिक्षा एक ऐसी अनवार्य ब्यबस्था होनी चाहिए जो की बच्चों को प्रारंभ से ही अपने-अपने धर्मं और संस्कारों की जानकारी दे ताकि बाद के युवावस्था मे इन्हे इन आधारभूत मसलों पर गुमराह न किया जा सके.
जी हाँ !!! अभी हालिए आतंकी घटनाओं के बाद उजागर हुए चाँद युवा आतंकियों के पृष्ठभूमि पर अगर नजर डालें तो शायद ये तथ्य आपको चौंका सकता है।
सफदर नागौरी - (सिमी का चीफ) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी से की है पी एच डी।
अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर - (सोफ्त्वायेर इंजिनियर ) शुरू के कुछ साल आई-टी क्षेत्र से जुरा था।
आतिफ उर्फ बशीर - फरीदाबाद के एंजीनियरिंग कॉलिज से बी - टेक।
शकील - जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स मे एम। ए. कर रहा है।
साकिब - मनिपाल यूनिवर्सिटी से डिस्टेंस लर्निंग से एमबीए का क्षात्र ।
कहने का मतलब ये की ये आतंक और आतंक वाद की प्रशिक्षा देने वाले कट्टरपंथीयों की पहुच अब सिर्फ़ मदरसों तक ही नहीं बल्कि विश्वविद्यालयों तक हो गई है। और चूँकि छात्र वर्ग सबसे जोशीला एवं कर्मठ होता है अतः उन्हें निशाना बनाना सबसे आसान हो जाता है। मुद्दा ये नहीं है की हालिया आतंकी कारनामों को अंजाम देने वाले दोषियों को कैसे पकडा जाए बल्कि ये है की उस सोच के बीज को जड़ से कैसे उन्मूलित करें जो हमारे इस जेनरेशन नेक्स्ट को खोखला करता जा रहा है।
यकीन मानिए उपरोक्त लिखित किसी भी आतंकवादी के परिवार वालों पर वो अत्याचार नहीं हुए हैं जिनकी वजह से भावनाओं मे आकर ये हिंसक हो उठे, ये सभी अच्छे घर और समाज से आने वाले आज के नौजवान हैं जिनके माता - पिता ने इनसे हजारों सपने जोर रखे हैं। फ़िर किन हालातों मे ये गुमराह हो जाते हैं? और कौन इन्हे गुमराह करता है?? किसके उकसावे मे आकर ये इतने बर्बर हो जाते हैं की एक सामूहिक हत्याकाण्ड के बाद खुशी मे जश्न मानते हैं? और इस से भी बड़ी दुःख की बात ये है की अपने हर कारनामे को अल्लाह की लड़ाई और जेहाद का नाम देना यानी अपने पाप को अल्लाह के नाम पे मढ़ देना।
मुझे लगता है , की इन लोगों को इस्लाम की तालीम ढंग से नहीं मिली और ये लोग पैगम्बर साहेब के इस्लामी सीखों के बजाये उन सीखों पर अमल करते हैं जो इस्लाम तालिबान ने सिखाया है।
ऐसे एक माहौल मे मेरा मन यही कहता है की हमारी शिक्षा प्रणाली मे धार्मिक शिक्षा एक ऐसी अनवार्य ब्यबस्था होनी चाहिए जो की बच्चों को प्रारंभ से ही अपने-अपने धर्मं और संस्कारों की जानकारी दे ताकि बाद के युवावस्था मे इन्हे इन आधारभूत मसलों पर गुमराह न किया जा सके.
Wednesday, September 17, 2008
गत सप्ताहांत कुछ व्यक्तिगत कार्यवश पूना जाना हुआ। शीघ्र काम निपटा कर अगले दिन बंबई जाने नहीं तैयारी कर रहा था क्योंकि मेरी वापसी की फ्लाईट बंबई से ही थी कि मोबाइल कि घंटी बजी। देखा तो बचपन के एक दोस्त का नंबर मोबाइल स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा था। मैं चौंक गया क्योंकि मेरे बंबई ओर पूना दौरे के बारे मे मैंने अपने बहौत ख़ास दोस्तों को भी नहीं बताया था फ़िर इन मित्र महोदय को इसकी जानकारी कैसे हो गई।
यद्यपि पूना मे मेरे मित्र मंडली कि कमी नहीं है, तथापि व्यस्त क्रियाकलाप और संकुचित समय के कारण मैंने किसी से भी भेंट न करने का निर्णय लिया था। खैर मित्र महोदय से कुशलक्षेम के उपरांत मन अथवा बेमन से हमने मुलाकात का एक स्थान निर्धारित किया। देर से आने वाले मेरे सॉफ्टवेर इंजिनियर मित्र अपने किसी प्रोजेक्ट मेनेजर को इस विलंब का कारण बता रहे थे । बातचीत चली ओर हम दोनों वहीँ के एक मदिरालय मे संग हो लिए , जाहिर है... मेरी जाने कि इक्षा बिल्कुल नहीं थी लेकिन किसी को नकारात्मक उत्तर नहीं दे पाने कि कमजोरी का परिणाम भुगतना पड़ा।
अबतक के अपने इस काम से मैं कुछ बहोत जादा उत्साहित नहीं था , हाँ एक पुराने दोस्त से मिलने कि खुशी जरूर थी। खैर, जैसे- जैसे मित्र महोदय के ऊपर मदिरा रानी अपना असर दिखा रही थी , वैसे वैसे धीरे धीरे शमा भी बाँधता जा रहा था. मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरे ये श्रीमान मित्र मुझसे अलग होने के बाद इतने बड़े शायर ओर कविता प्रेमी हो जायेंगे, पेशे से कम्पूटर विशेषज्ञ ओर तबियत से शायर। अपनी व्यक्तिगत जीवन के बहोत सारे अध्यायों को खोल कर हर अध्याय के ऊपर उनकी कविता.... काबिले तारीफ़ निकली।
कोई दीवाना कहता है , कोई पागल समझता है ,
मगर धरती कि बैचनी को बस बादल समझता है ।
मैं तुझसे दूर कैसे हूँ ,तू मुझसे दूर कैसी है ,
यह तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है ।
मोहब्बत एक एहसासों कि पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था , कभी मीरा दीवानी है ।
यहाँ सब लोग कहते हैं मेरी आँखों मे आंसू है ,
जो तू समझे तो मोती है, जो न समझे तो पानी है।
समंदर पीर का अन्दर है लेकिन रो नहीं सकता ,
यह आंसूं प्यार का मोती है , इसको खो नहीं सकता ।
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना ,मगर सुन ले ,
जो मेरा हो नहीं पाया , वोह तेरा हो नहीं सकता ।
भाई मैं तो बिना तारीफ़ किए नहीं रह पाया। ओर तारीफ़ सुन उनका उत्साह ओर बढ़ गया। अब तक महफिल भी अच्छी जम गई थी हमारे आस पास दो ओर लोग आकर बैठ चुके थे। तभी उनका अगला तीर चला...
अमावास की काली रातों मे दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्यासी रातों मे गम आँसू के संग होते हैं,
जब पिछवाडे के कमरे मे हम निपट अकेले सोते हैं,
जब घडियां टिक-टिक करती हैं, सब सोते हैं हम रोते हैं।
जब बार - बार दोहराने से सारी यादें चुक जातीं हैं,
जब उंच - नीच सुलझाने मे माथे नहीं नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है।
ओर उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब पोठे खाली होते हैं, जब हार सवाली होते हैं,
जब गजलें रास नहीं आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धुप समेटे दिन जल्दी ढल जाता है,
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों मे देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने नहीं इक्षा मन ही मन मे घुट जाती है,
जब कॉलेज से घर जाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मना करने पर भी पारो पढने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब उस पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
ओर उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब कमरे मे सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण मे आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बडकी भाभी कहती है कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिनभर कुछ तो सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाले बैठक मे कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाते हैं, घबराते हैं
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मानती है, फोटो दिखलाया जाता है।
तब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
ओर उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
मस्ती, दर्द ओर एहसास का संगम एक साथ जब हो तो एक दिलचस्प कविता बन जाती है, इस बात से तो आप अवगत ही होंगे। अगर नहीं तो उन्हीके लफ्जों मे सुन लीजिये।
"भंवरा कोई फूल पर मचल बैठा तो हंगामा ,
हमारे दिल मे कोई खाब बन बैठा तो हंगामा,
अभी तक डूब के सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का,
मैं किस्से को हकीकत मे बदल बैठा तो हंगामा।"
काफ़ी अच्छी शाम गुजरी हमारी और मदिरालय के बाकी शायर मिजाज लोगों की। लेकीन कहते हैं हर मजे की एक कीमत चुकानी होती है, सो मुझे भी चुकानी पड़ी रात एक बजे मित्र महोदय को कंधे का सहारा देकर घर तक ले जाना पड़ा। लेकीन कुल मिलाकर मुलाक़ात अच्छी रही.
यद्यपि पूना मे मेरे मित्र मंडली कि कमी नहीं है, तथापि व्यस्त क्रियाकलाप और संकुचित समय के कारण मैंने किसी से भी भेंट न करने का निर्णय लिया था। खैर मित्र महोदय से कुशलक्षेम के उपरांत मन अथवा बेमन से हमने मुलाकात का एक स्थान निर्धारित किया। देर से आने वाले मेरे सॉफ्टवेर इंजिनियर मित्र अपने किसी प्रोजेक्ट मेनेजर को इस विलंब का कारण बता रहे थे । बातचीत चली ओर हम दोनों वहीँ के एक मदिरालय मे संग हो लिए , जाहिर है... मेरी जाने कि इक्षा बिल्कुल नहीं थी लेकिन किसी को नकारात्मक उत्तर नहीं दे पाने कि कमजोरी का परिणाम भुगतना पड़ा।
अबतक के अपने इस काम से मैं कुछ बहोत जादा उत्साहित नहीं था , हाँ एक पुराने दोस्त से मिलने कि खुशी जरूर थी। खैर, जैसे- जैसे मित्र महोदय के ऊपर मदिरा रानी अपना असर दिखा रही थी , वैसे वैसे धीरे धीरे शमा भी बाँधता जा रहा था. मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरे ये श्रीमान मित्र मुझसे अलग होने के बाद इतने बड़े शायर ओर कविता प्रेमी हो जायेंगे, पेशे से कम्पूटर विशेषज्ञ ओर तबियत से शायर। अपनी व्यक्तिगत जीवन के बहोत सारे अध्यायों को खोल कर हर अध्याय के ऊपर उनकी कविता.... काबिले तारीफ़ निकली।
कोई दीवाना कहता है , कोई पागल समझता है ,
मगर धरती कि बैचनी को बस बादल समझता है ।
मैं तुझसे दूर कैसे हूँ ,तू मुझसे दूर कैसी है ,
यह तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है ।
मोहब्बत एक एहसासों कि पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था , कभी मीरा दीवानी है ।
यहाँ सब लोग कहते हैं मेरी आँखों मे आंसू है ,
जो तू समझे तो मोती है, जो न समझे तो पानी है।
समंदर पीर का अन्दर है लेकिन रो नहीं सकता ,
यह आंसूं प्यार का मोती है , इसको खो नहीं सकता ।
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना ,मगर सुन ले ,
जो मेरा हो नहीं पाया , वोह तेरा हो नहीं सकता ।
भाई मैं तो बिना तारीफ़ किए नहीं रह पाया। ओर तारीफ़ सुन उनका उत्साह ओर बढ़ गया। अब तक महफिल भी अच्छी जम गई थी हमारे आस पास दो ओर लोग आकर बैठ चुके थे। तभी उनका अगला तीर चला...
अमावास की काली रातों मे दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्यासी रातों मे गम आँसू के संग होते हैं,
जब पिछवाडे के कमरे मे हम निपट अकेले सोते हैं,
जब घडियां टिक-टिक करती हैं, सब सोते हैं हम रोते हैं।
जब बार - बार दोहराने से सारी यादें चुक जातीं हैं,
जब उंच - नीच सुलझाने मे माथे नहीं नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है।
ओर उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब पोठे खाली होते हैं, जब हार सवाली होते हैं,
जब गजलें रास नहीं आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धुप समेटे दिन जल्दी ढल जाता है,
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों मे देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने नहीं इक्षा मन ही मन मे घुट जाती है,
जब कॉलेज से घर जाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मना करने पर भी पारो पढने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब उस पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
ओर उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब कमरे मे सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण मे आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बडकी भाभी कहती है कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिनभर कुछ तो सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाले बैठक मे कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाते हैं, घबराते हैं
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मानती है, फोटो दिखलाया जाता है।
तब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
ओर उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
मस्ती, दर्द ओर एहसास का संगम एक साथ जब हो तो एक दिलचस्प कविता बन जाती है, इस बात से तो आप अवगत ही होंगे। अगर नहीं तो उन्हीके लफ्जों मे सुन लीजिये।
"भंवरा कोई फूल पर मचल बैठा तो हंगामा ,
हमारे दिल मे कोई खाब बन बैठा तो हंगामा,
अभी तक डूब के सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का,
मैं किस्से को हकीकत मे बदल बैठा तो हंगामा।"
काफ़ी अच्छी शाम गुजरी हमारी और मदिरालय के बाकी शायर मिजाज लोगों की। लेकीन कहते हैं हर मजे की एक कीमत चुकानी होती है, सो मुझे भी चुकानी पड़ी रात एक बजे मित्र महोदय को कंधे का सहारा देकर घर तक ले जाना पड़ा। लेकीन कुल मिलाकर मुलाक़ात अच्छी रही.
Thursday, July 10, 2008
ऑल डी बेस्ट मनमोहनजी !!
ओह,,, देखिये आपके अनुपस्थिति मे ई ससुरे बामपंथी सब का का नही बोल गए.... समर्थन वापसी का ६० सांसदों का घोषणा पत्र जाकर आपके बहिन प्रतिभा पाटिल को भी दे आए..... एहो कोनो बात हुआ.... भाई अगर आपके पिछवारे से कुर्सी खींचनी ही थी तो कम से कम एक बार आपसे कंसल्ट ता कर लेना चाहिए था... लीजिये अब झेलिये कुर्सी का भूकंप। वैसे भी ये भूकंप आपके लिए कम ,आपकी माताजी ( सोनिया गाँधी) के लिए जादा है... चिंता उनको भी बहुत है। आख़िर उनसे वो कन्धा छीन जायेगा जिस पर रख कर वो बन्दूक चलातीं हैं।
वैसे सच पूछिए तो हमको ई बामपंथी लोगों पर शुरुए से संदेह था टांग खींचने मे सबसे आगे रहते हैं लाल झंडा लहरा के...... ओर उहो मे अगर ई लोग बाहरी समर्थन दे रहे हों तो तब तो सरकार के मध्य जीवन संकट ( मिडिल लाइफ क्राइसिस ) का समस्या इसके जनम के साथे शुरू हो जाता है...... दूसरों को संकट मे डाल कर अपना रोटी सेकना कोई इनसे सीखे.... आपको का लागता है , ऐसे ही ई लोग चालीस साल से बंगाल मे राज कर रहा है.... इनको तो कभियो कम कर के आंकना ही नहीं चाहिए... ज्योति बाबु का पोलिटिक्स समझने मे आपके माताजी सोनिया गाँधी को अभी भी बहुत समय लगेगा.... अँ अँ अँ ... अब आप ई सोचिये जे हम आपका नाम काहे नहीं लिए, काहे की आप पॉलिटिक्स जानबे नहीं करते हैं। आप अगर कुछ जानते हैं , तो वो है चमचागिरीअपने माताजी का, लेकिन ई मत भूलिए... आपका सौतेला भाई ( राहुल गांधी) जो है, ऊहो अच्छा खासा लौबिबाजी कर रहा है... ४-५ साल रह गया ता कुंती माता का अर्जुन बेटा बन कर अपने करण जैसे भाई का पत्तावा काट देगा। सो समहर के रहिएगा।
आप हमलोगों को बहुत निराश किए हैं मनमोहन जी.... कहाँ हम लोग सोचे थे की आप जैसा बिद्वान , होनहार, धरती का लाल प्रधानमन्त्री के पद को संभालेगा , लेकिन आप तो सोनिया माँ के आँचल के नीचे सरकार चलाने वाले कह्त्पुटली बन गए। यही होता है , किसी को परोक्ष मे रख कर सरकार चलाने का नतीजा ... देखिये , अब जिन बामपंथियों के दम पर आपने सरकार बनाई , उनको खुश रखने के लिए उनके नेता को लोकसभा का अध्यक्ष भी बना डाला लेकिन परिणाम का हुआ..... आप वर्ल्ड टूर पर गए ओर इन्होने मौका देख कर चौका मार दिया... ससुर लोगों ने आपके पिछवाडे से कुर्सी खींचने का पूरा बंदोबस्त कर रखा है....
हाँ !!!! एक बात ओर... ई अमरवा ( अमर सिंघ ) के स्टेटमेंट पर मत जाइयेगा.... ई ससुरा भी बॉलीवुड का चक्कर काटते काटते बहुत एक्टिंग सीख गया है सच पूछिए ता ऊ ससुर का नाती मोने -मोने अगिला गृह मंत्री बन्ने का सपना भी देखने लगा है... इसीलिए आपको माखान मार रहा है... ना तो टाइम मिलने पर इहो आपके कुर्सी का एगो टंगडी तोर के भाग बैठेगा।
मनमोहन जी बस इतने गुजारिश है आपसे अपना पुरुषार्थ दिखाइये.... अपना डिसीजन अपने लीजिये... तलवे मत चाटिये खैर अब जो हो गया सो हो गया... अब जाइए बहिन ( प्रतिभा पाटिल) के दर्शन कर आइये...
ऑल डी बेस्ट !!!!!!
वैसे सच पूछिए तो हमको ई बामपंथी लोगों पर शुरुए से संदेह था टांग खींचने मे सबसे आगे रहते हैं लाल झंडा लहरा के...... ओर उहो मे अगर ई लोग बाहरी समर्थन दे रहे हों तो तब तो सरकार के मध्य जीवन संकट ( मिडिल लाइफ क्राइसिस ) का समस्या इसके जनम के साथे शुरू हो जाता है...... दूसरों को संकट मे डाल कर अपना रोटी सेकना कोई इनसे सीखे.... आपको का लागता है , ऐसे ही ई लोग चालीस साल से बंगाल मे राज कर रहा है.... इनको तो कभियो कम कर के आंकना ही नहीं चाहिए... ज्योति बाबु का पोलिटिक्स समझने मे आपके माताजी सोनिया गाँधी को अभी भी बहुत समय लगेगा.... अँ अँ अँ ... अब आप ई सोचिये जे हम आपका नाम काहे नहीं लिए, काहे की आप पॉलिटिक्स जानबे नहीं करते हैं। आप अगर कुछ जानते हैं , तो वो है चमचागिरीअपने माताजी का, लेकिन ई मत भूलिए... आपका सौतेला भाई ( राहुल गांधी) जो है, ऊहो अच्छा खासा लौबिबाजी कर रहा है... ४-५ साल रह गया ता कुंती माता का अर्जुन बेटा बन कर अपने करण जैसे भाई का पत्तावा काट देगा। सो समहर के रहिएगा।
आप हमलोगों को बहुत निराश किए हैं मनमोहन जी.... कहाँ हम लोग सोचे थे की आप जैसा बिद्वान , होनहार, धरती का लाल प्रधानमन्त्री के पद को संभालेगा , लेकिन आप तो सोनिया माँ के आँचल के नीचे सरकार चलाने वाले कह्त्पुटली बन गए। यही होता है , किसी को परोक्ष मे रख कर सरकार चलाने का नतीजा ... देखिये , अब जिन बामपंथियों के दम पर आपने सरकार बनाई , उनको खुश रखने के लिए उनके नेता को लोकसभा का अध्यक्ष भी बना डाला लेकिन परिणाम का हुआ..... आप वर्ल्ड टूर पर गए ओर इन्होने मौका देख कर चौका मार दिया... ससुर लोगों ने आपके पिछवाडे से कुर्सी खींचने का पूरा बंदोबस्त कर रखा है....
हाँ !!!! एक बात ओर... ई अमरवा ( अमर सिंघ ) के स्टेटमेंट पर मत जाइयेगा.... ई ससुरा भी बॉलीवुड का चक्कर काटते काटते बहुत एक्टिंग सीख गया है सच पूछिए ता ऊ ससुर का नाती मोने -मोने अगिला गृह मंत्री बन्ने का सपना भी देखने लगा है... इसीलिए आपको माखान मार रहा है... ना तो टाइम मिलने पर इहो आपके कुर्सी का एगो टंगडी तोर के भाग बैठेगा।
मनमोहन जी बस इतने गुजारिश है आपसे अपना पुरुषार्थ दिखाइये.... अपना डिसीजन अपने लीजिये... तलवे मत चाटिये खैर अब जो हो गया सो हो गया... अब जाइए बहिन ( प्रतिभा पाटिल) के दर्शन कर आइये...
ऑल डी बेस्ट !!!!!!
Wednesday, July 9, 2008
Dare to take Risk
"One of the greatest risk in life is..... Not DARING to Risk" says the table calander kept on my work station, a saying you cannt remain disagree for more than a nano second. Truly said.
Growth, Betterment, Pomotion... everyone talks about it, fantasizes it, dreams of it, but a very few among us put that extra effort in order to achive it. I would consider you to be a lier if you say, you dont dream to sit on the chair where your Boss or Super Boss is sitting presently, But... have you ever honestly asked yourself if you relly deserve sitting there ? have you ever interrospected yourself truthfully, what diffrential qualities your boss possesses that you dont do? may be the difference of education or the difference of exposure or the difference of the way your boss flatters his seniors.. anything, if this only is the differential that has paved the way for his success, so be it. And that's the thin line of difference between his success and your dreams. A very few of us think about it seriously but those who really do and inculcate these qualities in them only become the successor of their bosses and the cycle follows.
"It is really insane doing similar things daily and expecting result differently. "
At one juncture of life we try to be satisfied with whatever we have and accept the world running as normal and spend rest of our lives in that comfort zone. Trust me the successful people do not spent their lives snuggling in their own domain but they come out of it and take risks which precedes them to growth. So dont be satisfied as it is not a human nature. The ruthlessness to succeed will make you take risk and eventually fetch you the fruitful consequences.
Growth, Betterment, Pomotion... everyone talks about it, fantasizes it, dreams of it, but a very few among us put that extra effort in order to achive it. I would consider you to be a lier if you say, you dont dream to sit on the chair where your Boss or Super Boss is sitting presently, But... have you ever honestly asked yourself if you relly deserve sitting there ? have you ever interrospected yourself truthfully, what diffrential qualities your boss possesses that you dont do? may be the difference of education or the difference of exposure or the difference of the way your boss flatters his seniors.. anything, if this only is the differential that has paved the way for his success, so be it. And that's the thin line of difference between his success and your dreams. A very few of us think about it seriously but those who really do and inculcate these qualities in them only become the successor of their bosses and the cycle follows.
"It is really insane doing similar things daily and expecting result differently. "
At one juncture of life we try to be satisfied with whatever we have and accept the world running as normal and spend rest of our lives in that comfort zone. Trust me the successful people do not spent their lives snuggling in their own domain but they come out of it and take risks which precedes them to growth. So dont be satisfied as it is not a human nature. The ruthlessness to succeed will make you take risk and eventually fetch you the fruitful consequences.
Thursday, June 26, 2008
Do you also do the same?
" ...cant you see 'm working for the company even after the normal working hours, and not charging them extra for it, but this company which is full of morons doesn't recognize my contribution. " Aditya said gallingly , when Ravi asked him the reason of his daily overstay in the office after working hours.
Like Aditya many a people who suffer from ill-timed "middle aged crisis" at their home often give such fake pretext which visibley brings it to the notice of all their collegues and friends around them. For them 90 % of their work actually arise during the last working hours of the day and the congestion of all urgent incoming mails happens after 6 PM, incase if there is no such case still they wait till late for some high priority flagged mails after the office hours.
They need to be taught that the work productivity is never directly proportional to the number of hours that one spends at work, or in other language the work productivity doesnt increse if one spends additional hours at workplace like Aditya. It is only and only the quality time that a person spends being fully dedicated to work. - you ask it to any CEO of any MNC and they would definately give an assertive nod to your points. Once Dr. Narayan Murthi ( Head Infosys and the best employer of the year award winner) said it in one of his regular interactive session with his collegues- 'If you are not able to finish your work on stipulated time, it signifies any of the two things .
a) you are not capable to do that job.
b) your employer is lacking in adequate quantity of human resources.'
But people like Aditya who look up for an excuse of reaching home late in order to spend less time at home would probably not agree to it. They probably are unable to discriminate between their roles at home and office and this is what leads them to a 'middle aged crisis' at early age. These people are not only uncontented with their life but also spread it in the life of others. They are carrier of the virus of Unhappieness. These people show that they are very happy and very jovial from outside, they live life as if they give a damn to any problem, they are the most happy go-lucky person, but the truth of the matter is exactly reverse, they are unhappy with their collegues, they are unhappy with their neighbours, they are unhappy with the progress of others. They forget that, how can they spread happieness and joy around , when they themselves are not happy from within.
And this is not only the extent, they have various complains too for which no one is responsible. they have complain with weather - 'why it rained today', they have complain when some other vehicle comes their way while they are driving on the road which ends up with a remark- 'moron, doesnt know driving' or 'he doesnt have traffic sense'. They forget that while the other person came their way of driving they too crossed his path for which the other person might also be cursing them. very interesting.
A referance of chineese proverb would ne very relevent here- "you donot see the world how it is, but how you are." good saying.
Like Aditya many a people who suffer from ill-timed "middle aged crisis" at their home often give such fake pretext which visibley brings it to the notice of all their collegues and friends around them. For them 90 % of their work actually arise during the last working hours of the day and the congestion of all urgent incoming mails happens after 6 PM, incase if there is no such case still they wait till late for some high priority flagged mails after the office hours.
They need to be taught that the work productivity is never directly proportional to the number of hours that one spends at work, or in other language the work productivity doesnt increse if one spends additional hours at workplace like Aditya. It is only and only the quality time that a person spends being fully dedicated to work. - you ask it to any CEO of any MNC and they would definately give an assertive nod to your points. Once Dr. Narayan Murthi ( Head Infosys and the best employer of the year award winner) said it in one of his regular interactive session with his collegues- 'If you are not able to finish your work on stipulated time, it signifies any of the two things .
a) you are not capable to do that job.
b) your employer is lacking in adequate quantity of human resources.'
But people like Aditya who look up for an excuse of reaching home late in order to spend less time at home would probably not agree to it. They probably are unable to discriminate between their roles at home and office and this is what leads them to a 'middle aged crisis' at early age. These people are not only uncontented with their life but also spread it in the life of others. They are carrier of the virus of Unhappieness. These people show that they are very happy and very jovial from outside, they live life as if they give a damn to any problem, they are the most happy go-lucky person, but the truth of the matter is exactly reverse, they are unhappy with their collegues, they are unhappy with their neighbours, they are unhappy with the progress of others. They forget that, how can they spread happieness and joy around , when they themselves are not happy from within.
And this is not only the extent, they have various complains too for which no one is responsible. they have complain with weather - 'why it rained today', they have complain when some other vehicle comes their way while they are driving on the road which ends up with a remark- 'moron, doesnt know driving' or 'he doesnt have traffic sense'. They forget that while the other person came their way of driving they too crossed his path for which the other person might also be cursing them. very interesting.
A referance of chineese proverb would ne very relevent here- "you donot see the world how it is, but how you are." good saying.
Wednesday, May 21, 2008
आमिर, शाहरुख़ और आमिर का कुत्ता
लगान, रंग दे बसंती, और तत्कालीन तारे ज़मीन पर जैसे महान सफल चलचित्र के पृष्ठ नायक एवं निर्माता आमिर खान के एक गैर जिम्मेदार ब्लॉग पोस्ट ने संभवतः उनके गंभीर चरित्र के ऊपर एक प्रश्नचिंह लगा दिया है। प्रायोगिक तथा यथार्थवादी मुद्दों पर फ़िल्म बनने वाले ये नायक/निर्माता/ निर्देशक आमिर खान अवश्य ही किसी हीनभावना से ग्रसित हैं। उनके स्वयं के व्यक्तिगत जीवन मे उनके चरित्र की बात तो जग जाहिर है , जिसका जिक्र मैं यहाँ नहीं करना चाहता। किंतु अपने समकालिक एक अन्य महान नायक की तुलना अपने पालतू से करके निश्चय ही उन्होंने स्वयं को विवादों के कटहरे मे खड़ा कर लिया है।
मुद्दा ये नहीं है की उनके पालतू का नाम शाह रुख है या नहीं, बल्कि यह है की , जिस प्रतिस्पर्धा ओर द्वेष से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसी बात लिखी है वह अवांछनीय है। यदि दो मिनट के लिए मान भी लिया जाए की उनके पालतू का नाम शाह रुख है , तो भी एक जिम्मेदार आदमी को कदाचित यह बात सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए , ओर वो भी तब जब यह बात सीधा उनसे जुडा हुआ है जिन्हें वो अपना मित्र कहते हैं । उनके इस टिपण्णी से सामने वाले को कोई अन्तर नहीं परता । वैसे भी सदैव विवादों मे रहे आमिर की यह टिपण्णी एक ऐसे कलाकार के बारे मे जो जो कभी विवादों मे नहीं रहता हस्यास्प्रद है ।
वैसे मेरे भी पड़ोस मे एक सफाई कर्मचारी रहता है , जो हर रोज़ सड़क की गंदगी साफ करता है , उसका नाम आमिर खान है , यह बात मैं कह सकता हूँ क्योंकि मेरी ख्याति का स्तर उतना नहीं है जितना आमिर जी का है। ओर अगर कह भी दिया तो मैंने एक प्रायोगिक बात कही जो सम्भव है , एक सफाई कर्मचारी का नाम आमिर खान हो ही सकता है , किंतु उनकी बात तो हर तरह से अतार्किक है की उनके कुत्ते का नाम शाह रुख है। सचमुच कितनी घटिया मानसिकता पाल के रखते हैं आमिर जी आप । वैसे तो लोग अपने बच्चो का नाम विख्यात लोगों के नाम पर रखते हैं , लेकिन इन्होने तो पालतू कुत्ते का नामकरण करके एक नई प्रथा का शिलान्यास कर दिया है। आश्चर्य नहीं होगा अगर कल को मेरे मित्र के घर मे रहने वाली बिल्ली का नाम मेरा मित्र किरण ( आमिर की पत्नी) रख दे।
अब भले ही आमिर जी जनता ओर अपने खान भाई के सामने कितने भी क्षमा प्रार्थी हो जाएं, पर निश्चित रूप से इस आधारहीन बात से आमिर ने अपने कई प्रशंसकों को निराश किया है , ओर साथ साथ उनकी वास्तविकता भी सामने आ गई है।
referance : http://aamirkhan.com/blog.htm
मुद्दा ये नहीं है की उनके पालतू का नाम शाह रुख है या नहीं, बल्कि यह है की , जिस प्रतिस्पर्धा ओर द्वेष से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसी बात लिखी है वह अवांछनीय है। यदि दो मिनट के लिए मान भी लिया जाए की उनके पालतू का नाम शाह रुख है , तो भी एक जिम्मेदार आदमी को कदाचित यह बात सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए , ओर वो भी तब जब यह बात सीधा उनसे जुडा हुआ है जिन्हें वो अपना मित्र कहते हैं । उनके इस टिपण्णी से सामने वाले को कोई अन्तर नहीं परता । वैसे भी सदैव विवादों मे रहे आमिर की यह टिपण्णी एक ऐसे कलाकार के बारे मे जो जो कभी विवादों मे नहीं रहता हस्यास्प्रद है ।
वैसे मेरे भी पड़ोस मे एक सफाई कर्मचारी रहता है , जो हर रोज़ सड़क की गंदगी साफ करता है , उसका नाम आमिर खान है , यह बात मैं कह सकता हूँ क्योंकि मेरी ख्याति का स्तर उतना नहीं है जितना आमिर जी का है। ओर अगर कह भी दिया तो मैंने एक प्रायोगिक बात कही जो सम्भव है , एक सफाई कर्मचारी का नाम आमिर खान हो ही सकता है , किंतु उनकी बात तो हर तरह से अतार्किक है की उनके कुत्ते का नाम शाह रुख है। सचमुच कितनी घटिया मानसिकता पाल के रखते हैं आमिर जी आप । वैसे तो लोग अपने बच्चो का नाम विख्यात लोगों के नाम पर रखते हैं , लेकिन इन्होने तो पालतू कुत्ते का नामकरण करके एक नई प्रथा का शिलान्यास कर दिया है। आश्चर्य नहीं होगा अगर कल को मेरे मित्र के घर मे रहने वाली बिल्ली का नाम मेरा मित्र किरण ( आमिर की पत्नी) रख दे।
अब भले ही आमिर जी जनता ओर अपने खान भाई के सामने कितने भी क्षमा प्रार्थी हो जाएं, पर निश्चित रूप से इस आधारहीन बात से आमिर ने अपने कई प्रशंसकों को निराश किया है , ओर साथ साथ उनकी वास्तविकता भी सामने आ गई है।
referance : http://aamirkhan.com/blog.htm
Wednesday, May 14, 2008
तेरा साया
जब भी तुमको सोचा, ख़ुद के करीब पाया।
जैसे मेरे साथ-साथ चलता हो तेरा साया।
दिल को दिया सकून , तेरे साए ने,
जब भी इसको तन्हाई ने सताया।
तेरे साए मे भरी है वो बातें,
कराती है ताज़ी हमारी जो यादें,
की हम मिले थे उस मुकां पे जहाँ,
आकर थम सी गई थी हमारी सांसें,
वो साँसे आज भी थमती हैं,
तेरे यादों मे आँखें आज भी नमतीं हैं,
तेरा साया देता है तब दिल को राहत,
राहत पाकर भी बेचैनी कहाँ कमती है,
इस बेचैन दिल को हमने जब समझाया,
पर समझाने पर हर बार यही पाया,
नहीं इस दिल को था उकसाया किसी ने,
कोई ओर नहीं था वो था तेरा साया।
जैसे मेरे साथ-साथ चलता हो तेरा साया।
दिल को दिया सकून , तेरे साए ने,
जब भी इसको तन्हाई ने सताया।
तेरे साए मे भरी है वो बातें,
कराती है ताज़ी हमारी जो यादें,
की हम मिले थे उस मुकां पे जहाँ,
आकर थम सी गई थी हमारी सांसें,
वो साँसे आज भी थमती हैं,
तेरे यादों मे आँखें आज भी नमतीं हैं,
तेरा साया देता है तब दिल को राहत,
राहत पाकर भी बेचैनी कहाँ कमती है,
इस बेचैन दिल को हमने जब समझाया,
पर समझाने पर हर बार यही पाया,
नहीं इस दिल को था उकसाया किसी ने,
कोई ओर नहीं था वो था तेरा साया।
Friday, May 9, 2008
एक बिहारी , सौ बिमारी
आज ऑफिस से घर जाते हुए, रविन्द्र सदन मेट्रो स्टेशन पर खड़ा आने वाली मेट्रो की प्रतीक्षा कर ही रहा था की, मेरे दाहिने कंधे पर किसी हाथ रखने का आभास हुआ। पलट कर देखा तो अपनी वोही चिर-परिचित मुस्कान लिए शुक्ला जी खड़े थे। यूं तो शुक्ला जी हमारे बचपन के सहपाठी भी रह चुके हैं , लेकिन उनके सादा जीवन - उच्चा विचार के प्रसंशक हम प्रारंभ से ही हैं। हमारे जैसे बिहारी छात्र जो कलकत्ता आते ही अपने आप को महानगरी चादर से लपेट लिया, राधेमोहन शुक्ला जी सदैव इस बनावटी दुनिया से परे रहे। कॉलेज मे सभी छात्र लेक्चर समाप्त होते ही बावर्ची वाली सफ़ेद वर्दी उतार कर अत्याधुनिक पोशाक मे लैस हो जिन्हें वो लो - राइज़ जींस ओर बैगी टी- शर्ट कहते थे, अपनी -अपनी प्रेमिका अथवा महिला मित्रों के साथ कैफे - काफी - डे या माक्दोनाल्ड्स के वातानूकुलित कक्ष का आनंद लेते, लेकिन इन सबसे अलग हमारे शुक्ला जी अपनी वही सादी कमीज़ , फुल पैंट ओर हवाई चप्पल पहने चाचा के ढाबे पर चाय के चुस्कियों मे मग्न दिखते। यदा - कदा मैं भी सिगरेट के कश लेता हुआ उनके साथ सम्मिलित हो जाया करता था और फ़िर हम दोनों बिहारी लिट्टी - चोखे को अंतराष्ट्रीय ख्याति दिलाने के प्रयास मे लग जाते। कहने का तात्पर्य ये की हम दोनों की अच्छी पटती थी।
हमें ज्ञात था की शुक्ला जी यहीं कलकत्ते के एक पांच सितारा होटल " द पार्क " मे तंदूर शेफ के पद पर कार्य करते हैं, किंतु आज अचानक इस तरह नहीं मुलाक़ात से अनायास ही ब्यातीत किए हुए दिन हुए इस तरह आखों के आगे से ऐसे गुजरने लगे जैसे पावर - पॉइंट का स्लाइड शो हो रहा हो। घर जाने का उद्देश्य त्याग कर मैं उनके साथ मेट्रो स्टेशन से बाहर आ गया , ओर फ़िर हमारे सम्मिलित कदम पास ही स्थित हल्दिराम्स रेस्तरां के तरफ़ बढ़ गए। बात - चित के क्रम मे मैंने उनसे पूछा -- " आज रसोई मे दिन कैसी रही ?" पता चला की आज उनका साप्ताहिक छुट्टी का दिन था तो वो घर पर ही थे लेकिन अगले महीने गाँव जाने की टिकट कराने रविन्द्र सदन आए हुए थे। मैंने फ़िर पूछा -- तो टिकट हो ही गई गई होगी " लेकिन इसका उत्तर मिला "नहीं " साथ ही उनके चेहरे पर एक निराशा का भाव भी दिखा । अगर एक बावर्ची के शब्दों मे कहा जाए त ये मुफ्त मे दिखाई देने वाले भाव ऐसे ही थे जैसे बिरयानी के साथ रायेता मुफ्त आता है। कारण पूछा तो बोले की आरक्षण काऊंटर पर उनकी लड़ाई हो गई। ये सुनते ही मैं सोच मे पड़ गया की शुक्ला जी जैसा मनुष्य जो किसी भी विवाद से कोसों दूर रहता है , अचानक किसी झमेले मे कैसे उलझ गया । विस्तृत कहानी सुनी तो ज्ञात हुआ की बेचारे के साथ बड़ी विडंबना हो गई ।
आरक्षण के कतार मे खड़े शुक्ला जी पसीने से तर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे , तभी एक बंगालन माता जी ने उन्हें पीछे कतार मे खड़े होने को कहा क्योंकि वो वह पहले से कतार मैं खड़ी थी ओर किसी कार्यवश बाहर गई थी। पिछले पैंतालीस मिनट से खड़े शुक्ला जी ने जब यही तर्क देना चाहा तो माताजी के समर्थन मे २-३ बंगबंधू सम्मित्लित हो गए और अपनी एकजुट ध्वनि मे काँव - काँव करने लगे अब तो प्रश्न आत्म -सम्मान का बन आया था , शुक्ला जी भी अड़ गए। बस बोली की महाभारत प्रारंभ होने की देर थी की, हिन्दी ओर अंग्रेजी भाषाओं मे दिव्यास्त्र चलने लगे। और दूर खड़ी बंगालन माताजी महाभारत के पांचाली की भाँती सारे कर्म करा कर मानों इसी बात की प्रतीक्षा कर रहीं थी के कब शुक्ला जी जैसे दुस्शासन को उखाड़ फेका जाए और वो उनके स्थान पर खड़ी होकर अपनी टिकट बनवाए । लेकिन शुक्ला जी भी कच्चे खिलाडियों मे से नहीं थे, वो तो अभिमन्यु की भाँती चक्रव्यूह मे अकेला ही सब का सामना किए जा रहे थे। तभी एक कोने से आवाज़ आई.... " ऐइ ..... ई बिहारी शौब को कोलकाता से भागाओ ..... शाला शोब यहाँ आकर इधर का माहौल खौराब कोरता हाए...." और इस से भी बढ़ कर एक बात उन्हें सुनने को मिली -- " एक बिहारी , सौ बिमारी" कदाचित शुक्ला जी जैसे अभिमन्यु को परास्त करने का बस एक ही ब्रह्मास्त्र बंगबंधुओं के पास रह गया था... जिसका उन्होंने उपयोग कर लिया। वीरगति को प्राप्त शुक्ला जी भी अपने भाषा मे उन बंग्बंधुओं को भला-बुरा बोलते हुए बिना टिकट बनाये ही लौट गए।
उनके साथ घटी इस घटना से मैं काफ़ी क्षुब्ध हो गया । पहले तो उन्हें इन सब तरह की विवादों मे न पड़ने की मंत्रणा दी फ़िर वापिस जाकर टिकट बना लेने की सलाह, अन्यथा आज का यह साप्ताहिक अवकाश यूंही व्यर्थ चला जाता। काफ़ी समझाने के बाद वो दुबारा वहाँ मेरे साथ जाने को सहमत हुए।
उनके साथ सिधियाँ चढ़ता हुआ मैं आरक्षण हॉल तक पहुँचा। स्वयं को पांडव समझने वाले बंगबंधु तो द्रौपदी के साथ कूच कर गए थे, किंतु उनके सेना के कुछ वीर अभी भी वहाँ मौजूद थे। कत्तार लगी हुई थी। मैंने शुक्ला जी को सबसे आगे की पंक्ति मे खड़ा हो जाने को कहा ओर ये भी समझा दिया की अब उन्हें वोही तर्क देने हैं जो बंगबंधु पहले युद्ध मे दे रहे थे। बस क्या... अब हमारा अभिमन्यु पुनः जीवित हो चुका था ओर इस बारउन्हें बासुदेव कृष्ण का भी समर्थन प्राप्त था।
किंतु ये वाम पंथी विरोध अपनी परकाष्ट्था पे था । उनमे से एक बंगबंधू जो उम्र से थोड़े परिपक्वा ओर स्वभाव से थोड़े सज्जन जान पड़ रहे थे , शुक्ला जी के तरफ़ आरूढ़ होकर बोले -- " दादा तोमार ऐ काज त भालो नी ... तुमि आबार बिहारी मतों कोथाबोल छो। ( यानी, भाई साहब आप फ़िर से बिहारी की तरह बातें कर रहे हैं , ये बात अच्छी नहीं है। ) इतना सुनते मुझसे रहा नही गया ओरमैं उन सज्जन के समीप जाकर उनके मोटे काले चश्मे के फ्रेम मे होर्लिक्स के शीशे के तरह लगे लेंस से उनके आखों मे आँखे डालकर खड़ा हो गया ओर बड़े प्रेम से बोला - तो बंगाली जैसी बातें कैसे करते हैं यह आप ही बतला दीजिये। क्योंकि थोडी देर पहले आप लोग जिसे एक बिहारी के निकृष्ट कार्य नहीं संज्ञा दे रहे थे, वो कार्य आप निज ही कर रहे हैं। कहानी वोही है, बस कहानी के पात्र बदल गए हैं । जिस तरह से आप भाद्रजन " बिहारी " शब्द को गाली के तरह उपयोग मे लाते हैं , वैसे ही बंग शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है ओर आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की शायद ऐसा कार्य धद्दल्ले से हो रहा है। हर एक आलसी ओर कामचोर इंसान को कदाचित इसी विशेषण से अलंकृत किया जाता है। कर्कट प्रवृति का दूसरा नाम बंग प्रवृति हैजो हमेशा एक दूसरे को नीचा दिखाने मे लगे रहते है , संभवतः यह भूल जाते हैं की दूसरों का अपमान करने से उनकी गरिमा कभी नहीं बढ़ सकती। अतः क्षेत्रीयता को गाली बना कर प्रयोग मे लाने से किसी को भी बचना चाहिए। अन्यथा एक दिन क्षेत्रीयता से प्रभावित वैमनस्यता उस ऊंचाई पर पहुच जायेगी , जहाँ हर मनुष्य अपने अस्तित्व को खो कर सिर्फ़ प्रांतीय बन कर रह जायेगा। समुदाय बिहारी हो या बंगाली, या मराठी, गुजराती कुछ भी हो , कभी बुरी नहीं होती बुरे आप और हम जैसे लोग होते हैं जो कभी इन सब चीजों से उठ कर उपर की नहीं सोचते, और इसका प्रत्यक्षा उदाहरण आपके सामने है। किसी को नीचा दिखा कर हम स्वयं को महान नहीं कर सकते, इसके लिए महान कार्य करने पड़ते हैं।
इस प्रशन का उत्तर किन्ही बंगबंधू के पास कदाचित नही था, और मेरी इस बात को इतने ध्यान से सुने जाने का कारण यह था की मैंने अपना उत्तर उन्हीं के भाषा मे दिया था, जिसके उपर मुझे कुछ लोगों नहीं सहमति भी मिलने लगी।
तिरछी नजर से से देखा तो शुक्ला जी अपना टिकट करा कोने मे खड़े हो कर, मेरे बातों को सुन रहे थे ... हमारी इस ज्ञानप्रद बातों से बंग्बंधुओं का ध्यान बाँट गया था ओर शुक्ला जी को टिकट कराने का पर्याप्त समय मिल गया। उनका कार्य सिद्ध हुआ ओर मुफ्त मे बंग बंधुओं का ज्ञानवर्धन भी। बाहर आकर पुनः सिगरेट के धुएं , चाय के चुस्कियों ओर ठहाकों के साथ हमने अपनी संध्या गुजारी, ओर फ़िर रबिन्द्र सदन मेट्रो स्टेशन से अपनी गाड़ी पकड़ कर गंतव्य की तरफ़ रवाना हो गए।
नोट : एक ज्वलंत मुद्दे पर यह व्यंग किसी भी क्षेत्रीय भावना से प्रेरित नहीं है, आपको यह कैसा लगा, इस पर टिपण्णी अवश्य दे।
हमें ज्ञात था की शुक्ला जी यहीं कलकत्ते के एक पांच सितारा होटल " द पार्क " मे तंदूर शेफ के पद पर कार्य करते हैं, किंतु आज अचानक इस तरह नहीं मुलाक़ात से अनायास ही ब्यातीत किए हुए दिन हुए इस तरह आखों के आगे से ऐसे गुजरने लगे जैसे पावर - पॉइंट का स्लाइड शो हो रहा हो। घर जाने का उद्देश्य त्याग कर मैं उनके साथ मेट्रो स्टेशन से बाहर आ गया , ओर फ़िर हमारे सम्मिलित कदम पास ही स्थित हल्दिराम्स रेस्तरां के तरफ़ बढ़ गए। बात - चित के क्रम मे मैंने उनसे पूछा -- " आज रसोई मे दिन कैसी रही ?" पता चला की आज उनका साप्ताहिक छुट्टी का दिन था तो वो घर पर ही थे लेकिन अगले महीने गाँव जाने की टिकट कराने रविन्द्र सदन आए हुए थे। मैंने फ़िर पूछा -- तो टिकट हो ही गई गई होगी " लेकिन इसका उत्तर मिला "नहीं " साथ ही उनके चेहरे पर एक निराशा का भाव भी दिखा । अगर एक बावर्ची के शब्दों मे कहा जाए त ये मुफ्त मे दिखाई देने वाले भाव ऐसे ही थे जैसे बिरयानी के साथ रायेता मुफ्त आता है। कारण पूछा तो बोले की आरक्षण काऊंटर पर उनकी लड़ाई हो गई। ये सुनते ही मैं सोच मे पड़ गया की शुक्ला जी जैसा मनुष्य जो किसी भी विवाद से कोसों दूर रहता है , अचानक किसी झमेले मे कैसे उलझ गया । विस्तृत कहानी सुनी तो ज्ञात हुआ की बेचारे के साथ बड़ी विडंबना हो गई ।
आरक्षण के कतार मे खड़े शुक्ला जी पसीने से तर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे , तभी एक बंगालन माता जी ने उन्हें पीछे कतार मे खड़े होने को कहा क्योंकि वो वह पहले से कतार मैं खड़ी थी ओर किसी कार्यवश बाहर गई थी। पिछले पैंतालीस मिनट से खड़े शुक्ला जी ने जब यही तर्क देना चाहा तो माताजी के समर्थन मे २-३ बंगबंधू सम्मित्लित हो गए और अपनी एकजुट ध्वनि मे काँव - काँव करने लगे अब तो प्रश्न आत्म -सम्मान का बन आया था , शुक्ला जी भी अड़ गए। बस बोली की महाभारत प्रारंभ होने की देर थी की, हिन्दी ओर अंग्रेजी भाषाओं मे दिव्यास्त्र चलने लगे। और दूर खड़ी बंगालन माताजी महाभारत के पांचाली की भाँती सारे कर्म करा कर मानों इसी बात की प्रतीक्षा कर रहीं थी के कब शुक्ला जी जैसे दुस्शासन को उखाड़ फेका जाए और वो उनके स्थान पर खड़ी होकर अपनी टिकट बनवाए । लेकिन शुक्ला जी भी कच्चे खिलाडियों मे से नहीं थे, वो तो अभिमन्यु की भाँती चक्रव्यूह मे अकेला ही सब का सामना किए जा रहे थे। तभी एक कोने से आवाज़ आई.... " ऐइ ..... ई बिहारी शौब को कोलकाता से भागाओ ..... शाला शोब यहाँ आकर इधर का माहौल खौराब कोरता हाए...." और इस से भी बढ़ कर एक बात उन्हें सुनने को मिली -- " एक बिहारी , सौ बिमारी" कदाचित शुक्ला जी जैसे अभिमन्यु को परास्त करने का बस एक ही ब्रह्मास्त्र बंगबंधुओं के पास रह गया था... जिसका उन्होंने उपयोग कर लिया। वीरगति को प्राप्त शुक्ला जी भी अपने भाषा मे उन बंग्बंधुओं को भला-बुरा बोलते हुए बिना टिकट बनाये ही लौट गए।
उनके साथ घटी इस घटना से मैं काफ़ी क्षुब्ध हो गया । पहले तो उन्हें इन सब तरह की विवादों मे न पड़ने की मंत्रणा दी फ़िर वापिस जाकर टिकट बना लेने की सलाह, अन्यथा आज का यह साप्ताहिक अवकाश यूंही व्यर्थ चला जाता। काफ़ी समझाने के बाद वो दुबारा वहाँ मेरे साथ जाने को सहमत हुए।
उनके साथ सिधियाँ चढ़ता हुआ मैं आरक्षण हॉल तक पहुँचा। स्वयं को पांडव समझने वाले बंगबंधु तो द्रौपदी के साथ कूच कर गए थे, किंतु उनके सेना के कुछ वीर अभी भी वहाँ मौजूद थे। कत्तार लगी हुई थी। मैंने शुक्ला जी को सबसे आगे की पंक्ति मे खड़ा हो जाने को कहा ओर ये भी समझा दिया की अब उन्हें वोही तर्क देने हैं जो बंगबंधु पहले युद्ध मे दे रहे थे। बस क्या... अब हमारा अभिमन्यु पुनः जीवित हो चुका था ओर इस बारउन्हें बासुदेव कृष्ण का भी समर्थन प्राप्त था।
किंतु ये वाम पंथी विरोध अपनी परकाष्ट्था पे था । उनमे से एक बंगबंधू जो उम्र से थोड़े परिपक्वा ओर स्वभाव से थोड़े सज्जन जान पड़ रहे थे , शुक्ला जी के तरफ़ आरूढ़ होकर बोले -- " दादा तोमार ऐ काज त भालो नी ... तुमि आबार बिहारी मतों कोथाबोल छो। ( यानी, भाई साहब आप फ़िर से बिहारी की तरह बातें कर रहे हैं , ये बात अच्छी नहीं है। ) इतना सुनते मुझसे रहा नही गया ओरमैं उन सज्जन के समीप जाकर उनके मोटे काले चश्मे के फ्रेम मे होर्लिक्स के शीशे के तरह लगे लेंस से उनके आखों मे आँखे डालकर खड़ा हो गया ओर बड़े प्रेम से बोला - तो बंगाली जैसी बातें कैसे करते हैं यह आप ही बतला दीजिये। क्योंकि थोडी देर पहले आप लोग जिसे एक बिहारी के निकृष्ट कार्य नहीं संज्ञा दे रहे थे, वो कार्य आप निज ही कर रहे हैं। कहानी वोही है, बस कहानी के पात्र बदल गए हैं । जिस तरह से आप भाद्रजन " बिहारी " शब्द को गाली के तरह उपयोग मे लाते हैं , वैसे ही बंग शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है ओर आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की शायद ऐसा कार्य धद्दल्ले से हो रहा है। हर एक आलसी ओर कामचोर इंसान को कदाचित इसी विशेषण से अलंकृत किया जाता है। कर्कट प्रवृति का दूसरा नाम बंग प्रवृति हैजो हमेशा एक दूसरे को नीचा दिखाने मे लगे रहते है , संभवतः यह भूल जाते हैं की दूसरों का अपमान करने से उनकी गरिमा कभी नहीं बढ़ सकती। अतः क्षेत्रीयता को गाली बना कर प्रयोग मे लाने से किसी को भी बचना चाहिए। अन्यथा एक दिन क्षेत्रीयता से प्रभावित वैमनस्यता उस ऊंचाई पर पहुच जायेगी , जहाँ हर मनुष्य अपने अस्तित्व को खो कर सिर्फ़ प्रांतीय बन कर रह जायेगा। समुदाय बिहारी हो या बंगाली, या मराठी, गुजराती कुछ भी हो , कभी बुरी नहीं होती बुरे आप और हम जैसे लोग होते हैं जो कभी इन सब चीजों से उठ कर उपर की नहीं सोचते, और इसका प्रत्यक्षा उदाहरण आपके सामने है। किसी को नीचा दिखा कर हम स्वयं को महान नहीं कर सकते, इसके लिए महान कार्य करने पड़ते हैं।
इस प्रशन का उत्तर किन्ही बंगबंधू के पास कदाचित नही था, और मेरी इस बात को इतने ध्यान से सुने जाने का कारण यह था की मैंने अपना उत्तर उन्हीं के भाषा मे दिया था, जिसके उपर मुझे कुछ लोगों नहीं सहमति भी मिलने लगी।
तिरछी नजर से से देखा तो शुक्ला जी अपना टिकट करा कोने मे खड़े हो कर, मेरे बातों को सुन रहे थे ... हमारी इस ज्ञानप्रद बातों से बंग्बंधुओं का ध्यान बाँट गया था ओर शुक्ला जी को टिकट कराने का पर्याप्त समय मिल गया। उनका कार्य सिद्ध हुआ ओर मुफ्त मे बंग बंधुओं का ज्ञानवर्धन भी। बाहर आकर पुनः सिगरेट के धुएं , चाय के चुस्कियों ओर ठहाकों के साथ हमने अपनी संध्या गुजारी, ओर फ़िर रबिन्द्र सदन मेट्रो स्टेशन से अपनी गाड़ी पकड़ कर गंतव्य की तरफ़ रवाना हो गए।
नोट : एक ज्वलंत मुद्दे पर यह व्यंग किसी भी क्षेत्रीय भावना से प्रेरित नहीं है, आपको यह कैसा लगा, इस पर टिपण्णी अवश्य दे।
Wednesday, May 7, 2008
एक गंभीर मुद्दा
सोचा कुछ ओर भी लिखु , अब जब ब्लॉग बना ही लिया है तो अब इसके माध्यम से ही अपने अवांछित समय का सदुपयोग करूं । कुछ अन्य विद्वानों के ब्लॉग ने भी इस दिशा मे उत्प्रेरक का कार्य किया और मैंने फैसला कर ही लिया की कुच्छ गंभीर बातें अपने ब्लॉग पर लिखूंगा। लेकिन ये गंभीर बातें मैं लाऊँ कहा से ये बड़ा ही जटिल प्रशन खड़ा हो गया ।
काफ़ी देर सोच बिचार करने के बाद मैंने अपने मित्र से पूछा .... अगर वो मुझे कुछेक गंभीर मुद्दों पर बात करने का विषय दे, मित्र महोदय जो पेशे से पत्रकार हैं, अपने अंदाज़ मे मुझसे मेरी राय मांगने लगे, ओर उनके पास तो जैसे विषय वस्तु की कमी ही नही थी... देश की उल्टी राजनीति , तजा चल रहे DLF क्रिकेट मे खेल को छोर ब्यापार प्रबंधन की प्राथमिकता तो वहीं खेल के मैदान मे ग्लामर का प्रदर्शन नृत्य सुंदरियों के माध्यम से किए जाने की तर्कसंगतता। ये सब उनके लिए सबसे बड़े गंभीर मुद्दे थे , जिनके उपर मुझे अवश्य ही बात करनी चाहिए । और अगर फ़िर भी कुछ बचा पड़ा रह गया तो रही सही कसर हमारे महाबली " द ग्रेट खली " पूरी कर ही देंगे।
किंतु भगवान् की दया से नाही मेरी राजनीति मे कोई रूचि रही है और मैच फिक्सिंग जैसे दुखांत घटना के बाद क्रिकेट मुझे सज्जनों का खेल मालूम नही पड़ता । वैसे भी खेल के मैदान मे एक खिलाडी का दूसरे सह-खिलाडी को Monkey ( ...माँ की ) बोलना स्वयं ही इस बात का सत्यापन है की क्रिकेट अब भद्रजनों का खेल नही रहा । अतः ये चीजें मुझे बिल्कुल भी आकर्षित नहीं करतीं .... हाँ लेकिन उन नृत्य बालाओं के उत्तेजनापूर्ण उछल- कूद और अन्य शारीरिक गतिविधियाँ एक क्षण के लिए अवश्य लुभातीं हैं , और मन को उद्वेलित कर जातीं हैं। मुझे लगता है , खेल के मैदान मे इनकी उपस्थिति मात्र इसलिए दर्शाई जाती है की अगर खेल नीरस हो रहा हो तो भी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता रहे और स्टेडियम से बाहर जाते हुए किसी भी दल के समर्थक को ऐसा न लगे नहीं उसके टिकेट के पैसे बेकार गए।
सचमुच ये कलयुग अब मात्र घोर कलयुग न रह कर , घोर कल + अर्थ युग बन गया है। सचमुच । अगर अखाडे मे खड़े होकर सारी शारीरिक यातना सहने को कोई तैयार हो जाता है , तो इसका कारण बस ये है की, इसके एवज मे लाखों डॉलर उसके जेब मे ठूंस दिए जाते हैं। और फ़िर हर न्यूज़ चैनल वाला अपने रात के प्राइम टाइम के शो मे बड़े ही गोरान्वित तरीके से इसके लिए महाबली का जय - जयकार करता है। उसके इतिहास, भूगोल, और सारे समाजशास्त्र को दर्शाता है। और देखने वाले लोग भी सिर्फ़ अपने बाल - बच्चो के साथ बैठ कर देखते ही नही हैं , बल्कि अगले दिन अपने ऑफिस , स्कूल मे भी इसकी चर्चा - परिचर्चा मे अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं।
अगर तिवारी जी ( मेरे पत्रकार मित्र) के दृष्टि मे यही गंभीर मुद्दा है तो , मैं फ़िर क्षमा मांगता हूँ। ये उनकी भी गलती नहीं है..... उनके पेशे की गलती है अथवा उनके खडूस बॉस की जो उन्हें हर किसी हरकत मे कोई ने न्यूज़ लाने को बोलता है। इनमे से एक राजनीति को छोर कर कोई मुद्दा मुझे तर्क सांगत नही लगा जिसके उपर टिपण्णी की जा सके । बाकी तो सारे बस सस्ते मनोरंजन के तरीके हैं।
काफ़ी देर सोच बिचार करने के बाद मैंने अपने मित्र से पूछा .... अगर वो मुझे कुछेक गंभीर मुद्दों पर बात करने का विषय दे, मित्र महोदय जो पेशे से पत्रकार हैं, अपने अंदाज़ मे मुझसे मेरी राय मांगने लगे, ओर उनके पास तो जैसे विषय वस्तु की कमी ही नही थी... देश की उल्टी राजनीति , तजा चल रहे DLF क्रिकेट मे खेल को छोर ब्यापार प्रबंधन की प्राथमिकता तो वहीं खेल के मैदान मे ग्लामर का प्रदर्शन नृत्य सुंदरियों के माध्यम से किए जाने की तर्कसंगतता। ये सब उनके लिए सबसे बड़े गंभीर मुद्दे थे , जिनके उपर मुझे अवश्य ही बात करनी चाहिए । और अगर फ़िर भी कुछ बचा पड़ा रह गया तो रही सही कसर हमारे महाबली " द ग्रेट खली " पूरी कर ही देंगे।
किंतु भगवान् की दया से नाही मेरी राजनीति मे कोई रूचि रही है और मैच फिक्सिंग जैसे दुखांत घटना के बाद क्रिकेट मुझे सज्जनों का खेल मालूम नही पड़ता । वैसे भी खेल के मैदान मे एक खिलाडी का दूसरे सह-खिलाडी को Monkey ( ...माँ की ) बोलना स्वयं ही इस बात का सत्यापन है की क्रिकेट अब भद्रजनों का खेल नही रहा । अतः ये चीजें मुझे बिल्कुल भी आकर्षित नहीं करतीं .... हाँ लेकिन उन नृत्य बालाओं के उत्तेजनापूर्ण उछल- कूद और अन्य शारीरिक गतिविधियाँ एक क्षण के लिए अवश्य लुभातीं हैं , और मन को उद्वेलित कर जातीं हैं। मुझे लगता है , खेल के मैदान मे इनकी उपस्थिति मात्र इसलिए दर्शाई जाती है की अगर खेल नीरस हो रहा हो तो भी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता रहे और स्टेडियम से बाहर जाते हुए किसी भी दल के समर्थक को ऐसा न लगे नहीं उसके टिकेट के पैसे बेकार गए।
सचमुच ये कलयुग अब मात्र घोर कलयुग न रह कर , घोर कल + अर्थ युग बन गया है। सचमुच । अगर अखाडे मे खड़े होकर सारी शारीरिक यातना सहने को कोई तैयार हो जाता है , तो इसका कारण बस ये है की, इसके एवज मे लाखों डॉलर उसके जेब मे ठूंस दिए जाते हैं। और फ़िर हर न्यूज़ चैनल वाला अपने रात के प्राइम टाइम के शो मे बड़े ही गोरान्वित तरीके से इसके लिए महाबली का जय - जयकार करता है। उसके इतिहास, भूगोल, और सारे समाजशास्त्र को दर्शाता है। और देखने वाले लोग भी सिर्फ़ अपने बाल - बच्चो के साथ बैठ कर देखते ही नही हैं , बल्कि अगले दिन अपने ऑफिस , स्कूल मे भी इसकी चर्चा - परिचर्चा मे अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं।
अगर तिवारी जी ( मेरे पत्रकार मित्र) के दृष्टि मे यही गंभीर मुद्दा है तो , मैं फ़िर क्षमा मांगता हूँ। ये उनकी भी गलती नहीं है..... उनके पेशे की गलती है अथवा उनके खडूस बॉस की जो उन्हें हर किसी हरकत मे कोई ने न्यूज़ लाने को बोलता है। इनमे से एक राजनीति को छोर कर कोई मुद्दा मुझे तर्क सांगत नही लगा जिसके उपर टिपण्णी की जा सके । बाकी तो सारे बस सस्ते मनोरंजन के तरीके हैं।
Monday, May 5, 2008
First Love
बहुत दिनों बाद आज इस विषय पर सोचने का मौका मिला , ऐसा लगता है जैसे मस्तिष्क जड़ हो गया हो , भावातिरेक हाथों मे कम्पन ओर लेखनी अवरुद्ध हो गई हो । आज से लगभग पाँच साल पुरानी कहानी जिसमे भावना, नाटक, रोष ओर न जाने कितने ही रसों का समावेश है । वो रस जो हँसी के थे, वो रस जो एक दूसरे को दिखाए जाने वाले बनावटी गुस्से मे थे , वो रस जो सदैव रूठने -मनाने के नाट्य से झलकता था।
जीवन का एक पडाव था वो या फ़िर एक पडाव मे बसा हुआ सारा जीवन यह कहना मुश्किल हो रहा है।
कहते हैं प्रेम अँधा होता है जो उम्र , जाती, सम्प्रदाय और संस्कृति के बंधनों से सदैव उपर रहता है। ओर इसीलिए प्रेम का सामना प्रयोगिकता के धरातल से तब होता है जब यह कुलांचे भरता प्रेम सांसारिक बंधनों के थपेरे खा कर वास्तविकता के भूमि पर गिरता है । तब यह ज्ञात होता है की वास्तविकता कितनी कटु है , कितनी निर्दयी है जो दो निरीह प्राणी के उपर इतना अत्याचार करती है। वास्तविकता ही एक कारक है , जो विवश कर देती है हमें भविष्य , समाज, ओर इसके आधारहीन ढकोसलों को मानने के लिए । तदुपरांत प्रारंभ होता है ह्रदय विदारक वेदना ओर वास्तविकता के दंश को झेलने का क्रियाकलाप जो किसी के भी अन्दर सोये हुए लेखक , कवि , शायर को जगाने के लिए पर्याप्त है।
तेरी खतों का निशाँ मिटाया है,
क्या कहूं ख़ुद पे कैसा सितम धाय है,
दर्द के गुमनाम राहों से गुजर कर ,
हमने रस्म - ऐ - मुहब्बत निभाया है।
उन खतों को तुमने छुआ है,
साथ उनसे तुम्हारा रहा है,
तुम्हारे खुशबू मे वो भी नहाये होंगे,
कितने जज्बात से तुमने उन्हें लिखा है।
मुहब्बत के उन खूबसूरत गवाहों को,
हमने बेरहमी से जलाया है,
दर्द के गुमनाम राहों से गुजर कर,
हमने रस्म- ऐ- मुहब्बत निभाया है।
आज भी उन दिनों की बातें याद कर के अधरों पे स्वतः मुस्कराहट आ जाती है। ओर फ़िर यही सोचता हूँ की , lucky those people are who get true love in their lives, but luckiest are those who get it even for second time........
जीवन का एक पडाव था वो या फ़िर एक पडाव मे बसा हुआ सारा जीवन यह कहना मुश्किल हो रहा है।
कहते हैं प्रेम अँधा होता है जो उम्र , जाती, सम्प्रदाय और संस्कृति के बंधनों से सदैव उपर रहता है। ओर इसीलिए प्रेम का सामना प्रयोगिकता के धरातल से तब होता है जब यह कुलांचे भरता प्रेम सांसारिक बंधनों के थपेरे खा कर वास्तविकता के भूमि पर गिरता है । तब यह ज्ञात होता है की वास्तविकता कितनी कटु है , कितनी निर्दयी है जो दो निरीह प्राणी के उपर इतना अत्याचार करती है। वास्तविकता ही एक कारक है , जो विवश कर देती है हमें भविष्य , समाज, ओर इसके आधारहीन ढकोसलों को मानने के लिए । तदुपरांत प्रारंभ होता है ह्रदय विदारक वेदना ओर वास्तविकता के दंश को झेलने का क्रियाकलाप जो किसी के भी अन्दर सोये हुए लेखक , कवि , शायर को जगाने के लिए पर्याप्त है।
तेरी खतों का निशाँ मिटाया है,
क्या कहूं ख़ुद पे कैसा सितम धाय है,
दर्द के गुमनाम राहों से गुजर कर ,
हमने रस्म - ऐ - मुहब्बत निभाया है।
उन खतों को तुमने छुआ है,
साथ उनसे तुम्हारा रहा है,
तुम्हारे खुशबू मे वो भी नहाये होंगे,
कितने जज्बात से तुमने उन्हें लिखा है।
मुहब्बत के उन खूबसूरत गवाहों को,
हमने बेरहमी से जलाया है,
दर्द के गुमनाम राहों से गुजर कर,
हमने रस्म- ऐ- मुहब्बत निभाया है।
आज भी उन दिनों की बातें याद कर के अधरों पे स्वतः मुस्कराहट आ जाती है। ओर फ़िर यही सोचता हूँ की , lucky those people are who get true love in their lives, but luckiest are those who get it even for second time........
Friday, May 2, 2008
गाली
सुनने मे काफ़ी बुरा लगता है ये शब्द। ओर अगर मेरी माने तो शायद कोई गाली इतनी बुरी लगती होगी सुनने मे , जितना ये शब्द अकेला बुरा लगता है। दरअसल गाली एक विशेषण है जोकि नकारात्मक भावना से प्रेरित होकर दिया जाता है अतः आप इसे एक उच्च कोटी के नकारात्मक विशेषण की भी संज्ञा दे सकते हैं। मूलतः गालियों का अगर वर्गीकरण किया जाए , तो इन्हे दो तरह के श्रेणी मे बाटा जा सकता है।
१) मानविक गालियाँ
२) पाश्वीक गालियाँ
पाश्वीक गालियों मे व्यक्ति विशेष की तुलना किसी पशु से की जाती है। जैसे - कुत्ता, गधा, सूअर , आदि। मानविक गालियाँ वो होतीं हैं , जिनमे मनुष्य की तुलना गिरे हुए स्तर के अन्य किसी मनुष्य से की जाती है। उदाहरणस्वरूप ; मूर्ख, कमीना, पापी इत्यादी इस श्रेणी की गालियाँ हैं...
मानविक गालियों को भी आगे दो भागों मे विभाजित किया जा सकता है।
क) वैचारिक गालियाँ
ख़) साम्बंधिक गालियाँ
वैचारिक गालियाँ किसी को उसके ओछे विचार के कारण दी जातीं हैं। जैसे नीच , पाखंडी , दुष्ट किंतु साम्बंधिक गालियाँ वो होतीं हैं जिनसे किसी के अवांछित सम्बन्ध की दुहाई दी जाती है अथवा कोई ऐसी गाली जिसमे पीड़ित के सगे - संबंधियों को भला बुरा कहा जाता है । अब यहाँ एक यक्ष प्रशन यह खड़ा होता है की , इनमे से सबसे निकृष्ट गाली कौन सी है? आमतौर पर हमें उपर्युक्त सभी तरह की गालियाँ को यदा-कदा , चलते-फिरते सुनने का अवसर प्राप्त हो ही जाता है। और ग़लत न होगा ये कहना के शायद गालियाँ आज के भाग - दौड़ भरी जीवनशैली मे हमारी भाषा का एक हिस्सा बन गयीं है। आज दोस्तों के बीच एक-दूसरे को मजाक- ठिठोली मे "साला " और अन्य साम्बंधिक गालियाँ देना एक आम सी बात हो गई है, जिन्हें बुरा नहीं माना जाता। लेकिन कभी कभी यह भी देखने को मिलता है की, कोई सामन्य पाश्वीक गाली भी बहुत बड़े फसाद का कारण बन जाती है। अतः यह निष्कर्ष सहजता से निकला जा सकता है की, वस्तुतः कोई गाली बुरी नहीं होती अपितु वो तरीका बुरा होता है, जिसमे गाली दी जाती है।
१) मानविक गालियाँ
२) पाश्वीक गालियाँ
पाश्वीक गालियों मे व्यक्ति विशेष की तुलना किसी पशु से की जाती है। जैसे - कुत्ता, गधा, सूअर , आदि। मानविक गालियाँ वो होतीं हैं , जिनमे मनुष्य की तुलना गिरे हुए स्तर के अन्य किसी मनुष्य से की जाती है। उदाहरणस्वरूप ; मूर्ख, कमीना, पापी इत्यादी इस श्रेणी की गालियाँ हैं...
मानविक गालियों को भी आगे दो भागों मे विभाजित किया जा सकता है।
क) वैचारिक गालियाँ
ख़) साम्बंधिक गालियाँ
वैचारिक गालियाँ किसी को उसके ओछे विचार के कारण दी जातीं हैं। जैसे नीच , पाखंडी , दुष्ट किंतु साम्बंधिक गालियाँ वो होतीं हैं जिनसे किसी के अवांछित सम्बन्ध की दुहाई दी जाती है अथवा कोई ऐसी गाली जिसमे पीड़ित के सगे - संबंधियों को भला बुरा कहा जाता है । अब यहाँ एक यक्ष प्रशन यह खड़ा होता है की , इनमे से सबसे निकृष्ट गाली कौन सी है? आमतौर पर हमें उपर्युक्त सभी तरह की गालियाँ को यदा-कदा , चलते-फिरते सुनने का अवसर प्राप्त हो ही जाता है। और ग़लत न होगा ये कहना के शायद गालियाँ आज के भाग - दौड़ भरी जीवनशैली मे हमारी भाषा का एक हिस्सा बन गयीं है। आज दोस्तों के बीच एक-दूसरे को मजाक- ठिठोली मे "साला " और अन्य साम्बंधिक गालियाँ देना एक आम सी बात हो गई है, जिन्हें बुरा नहीं माना जाता। लेकिन कभी कभी यह भी देखने को मिलता है की, कोई सामन्य पाश्वीक गाली भी बहुत बड़े फसाद का कारण बन जाती है। अतः यह निष्कर्ष सहजता से निकला जा सकता है की, वस्तुतः कोई गाली बुरी नहीं होती अपितु वो तरीका बुरा होता है, जिसमे गाली दी जाती है।
Thursday, May 1, 2008
मिथिला मे पर्यटन विकास की संभावना
This is a well debated issue and has been mooted over several times but still thought of presenting my insight regarding the same.
Tourism has got various forms... somewhr it is cultural tourism, some whr it is religious tourism, somwhr it is adventurous tourism or some whr it is sex tourism and many more.... for improving the tourism capacity of a given destination, there are some and certain factors। these are some IFs and BUTs before thinking about incresing the tourism potential of a given spot ।
1. is the place or destination really worth being a good tourist spot?
yes. some what.
2. what kind of tourism is given an emphasis?
Cultural tourism. as the place has a glorious history of 3500 years and the continuity of the cultural activities are still very prominent in the region.
3. are there proper infrastructure in order to cater to the need of tourists?
no. it is not even nil, but the figure goes in negative . reason being the place is lacking in good quality hotels or even good quality budget category accommodation , pathetic transport, miserable condition of life driving infrastructures like electricity and water, Zero support from the administration's end .
4. Nature's support?
again not very very good , but some what . the normal holiday season is Summer and during that time the atmosphere around is so hot and uncomfortable that the localite resident even dont wish staying there, and god forbid if it rained, means the tourist will loose out his life in flood. winter is the one and only season when people will wish going to those places, and that too just a few months as not everyone gets a long holiday during winter. and even if they get one they prefer going to hill stations as they wish to see mountains , snows etc and there are no such natural beauty in Mithila.
5. wud the localite people be able to adjust with tourists?
ofcourse. after all guest is incarnation of God , thats wat we maithil think about.
Tourism has got various forms... somewhr it is cultural tourism, some whr it is religious tourism, somwhr it is adventurous tourism or some whr it is sex tourism and many more.... for improving the tourism capacity of a given destination, there are some and certain factors। these are some IFs and BUTs before thinking about incresing the tourism potential of a given spot ।
1. is the place or destination really worth being a good tourist spot?
yes. some what.
2. what kind of tourism is given an emphasis?
Cultural tourism. as the place has a glorious history of 3500 years and the continuity of the cultural activities are still very prominent in the region.
3. are there proper infrastructure in order to cater to the need of tourists?
no. it is not even nil, but the figure goes in negative . reason being the place is lacking in good quality hotels or even good quality budget category accommodation , pathetic transport, miserable condition of life driving infrastructures like electricity and water, Zero support from the administration's end .
4. Nature's support?
again not very very good , but some what . the normal holiday season is Summer and during that time the atmosphere around is so hot and uncomfortable that the localite resident even dont wish staying there, and god forbid if it rained, means the tourist will loose out his life in flood. winter is the one and only season when people will wish going to those places, and that too just a few months as not everyone gets a long holiday during winter. and even if they get one they prefer going to hill stations as they wish to see mountains , snows etc and there are no such natural beauty in Mithila.
5. wud the localite people be able to adjust with tourists?
ofcourse. after all guest is incarnation of God , thats wat we maithil think about.
Where The Mind Is Without Fear
Where the mind is without fear and the head is held high;
Where knowledge is free;
Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls;
Where words come out from the depth of truth;
Where tireless striving stretches its arms towards perfection;
Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desert sand of dead habit;
Where the mind is led forward by thee into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my fater ; let my country awake .
- Gurudev
Where knowledge is free;
Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls;
Where words come out from the depth of truth;
Where tireless striving stretches its arms towards perfection;
Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desert sand of dead habit;
Where the mind is led forward by thee into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my fater ; let my country awake .
- Gurudev
यथार्थ
यथार्थ क्या है?? क्या तात्पर्य होता है यथार्थ का? अगर हम इसका शाब्दिक अर्थ जानने का प्रयास करें तो ये शब्द "वास्तविकता " का पर्यायवाची जान परता है। अर्थात किसी वस्तु अथवा व्यक्ति मी निहित उसकी सत्यता , जिसे हम अंग्रेजी मी Realism कहते हैं। अब प्रश्न खड़ा होता है की हमें किन चीजों मे यथार्थ देखने को मिलता है - इसका सरल उत्तर है , मनुष्य के अतिरिक्त ब्रह्माण्ड के हर हर चीज में । निर्जीव वस्तुओं का यथार्थ तो प्रत्यक्ष होता है, जैसे एक कलम का यथार्थ है लिखना , उसी तरह अन्य निर्जीव वस्तुओं का भी यथार्थ अत्यन्त सरल होता है। किंतु मनुष्य के साथ यह बिल्कुल विपरीत है। मनुष्य का यथार्थ प्रत्यक्ष नही होता अपितु छुपा हुआ होता है। उसका यथार्थ वो नही होता जो वह दिखाता है, बल्कि उसका यथार्थ वो होता है जो छुपाता है, वही उसकी वास्तविकता होती है जो दृश्य नही होती। मनुष्य हमेशा अपने यथार्थ से परे रहता है , और सांसारिक उलझनों मे अपनी सत्यता खो देता है।
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